पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/७१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६२४ काव्य-निर्णय गया है । यहाँ नायिका पति के साथ जलने को-सती होने को, श्रृंगारादि से विभूषित होकर जा रही है, ऐसे समय उसको और अधिक-कामुक रूप में वर्णन करना असामयिक है।" पुनः उदाहरन जथा- रॉम-आगमन-नि कहथौ', रॉम बंधु सों बात । कंकन मोहि छुराइबौ', उतै जाहु तुम तात ॥ अस्य तिलक इहाँ कंकन-छुराइब को मोह त्याग श्रीराम को परसराम पै-उनके निकट जाइबौ उचित हो, सो न कयौ, ताते कादरता प्रघट जाँनी जात है। वि०-"काव्य-प्रकाश में श्राचार्य मम्मट ने यहाँ “अकांड-छेदन" दोष माना है । अकांड-छेदन-असमय रस का भंग करना, अनवसर विराम करना, यथा-- ___"अकांडे छेदो यथा वीरचरिते द्वितीयेऽके राघवभार्गवयोर्धाराधिरूढे वीर- रसे "कंकण मोचनाय गच्छामि" इति राघवस्योक्तौ ।" पुनः अन्य रस-दोष-लच्छन जथा- अंगै को बरनॅन करै, अंगी देह भुलाइ । यै हू है रस-दोष में, सुनों सकल कबिराइ ॥ अस्य उदाहरन जथा- दासी सों मंडन-समें, दरपॅन माग्यो बाँम । बैठि गई सो' सामने, करि भानन अभिराँम ॥ अस्य तिलक इहाँ नायिका भंगी है, दासी वाकी अंग है, सो इहाँ भंगी को-नायिका को काँदि भंग-दासी की सोभा बरनिवौ दोष है। अंग भुलाइये को-भूखिने को दोष है। अथ अंगी-भूलिवो-दोष उदाहरन- पीतँम-पठे सहेट कों, खेलॅन भटकी जाए। तकि विहिं भावत उतै ते, तिय मॅन-ऑन पछिवाह॥ पा०-१. (सं० पु० प्र०) कही। २. (सं० पु० प्र०) बुराइये। ३. (का०) (20)- (10)(स० पु० प्र०) सोइ सामु । ४.(का०) (40)(प्र०) निज..."