पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/८१

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४६ काव्य-निर्णय । अस्य तिलक इहाँ, ये ठौर (स्थान) सहेट-जोग्य (नायक से मिलने योग्य) है, ताते सखी कों टारियो (हटाना=अन्यत्र भेजना) व्यंजित होत है। वि०-"स्थान की विशेषता से व्यंग्यार्थ सूचित होना---'देश-विशेष' वा देश-वैशिष्ट्य ध्वनि कही जाती है । अस्तु दासजी की यह उक्ति महापंडित 'मम्मट' रचित 'काव्य-प्रकाश के निम्नलिखित श्लोका सुंदर अनुवाद है । यथा - "अन्यत्र यूयं कुसुमावचायं कुरुध्वमत्रास्मि करोमि सख्यः । नाह हि दूरे भ्रमितु समर्था प्रसीदतायं चितोऽजलिवः ॥" "नाहं हि दूरे भ्रमितु समर्था" --का कितना समर्थ अनुवाद है-'हों असक्त ज्यों-त्यों इतै,".... (E) काल-बिसेख ते 'दोहा' जथा- हों जॉमिन, अलि' जाँनि दै, कहा रही गहि फेंटि । हरि फिरि अइहें होति-ही, बँन-बागन सों भेंटि ॥ * अस्य तिलक इहाँ-बसंत रितु है, ताते मोहि (नायक कों काम) उद्दोपॅन को भरोसौ होत है, पुनः नायक के भागमन को भाव ब्यंजित है। वि०-"अर्थात् काल (समय) विशेष के ज्ञान से व्यंग्यार्थ भासित होना- 'काल-विशेष' वा “कालवैशिष्ट्य" कहा जाता है। इसीलिये सखी नायिका के प्रति भरोसे के साथ कहती है कि 'जाने दे, मतरोक, बन-बागों को प्रफुल्लित देख ये अभी लोटे आते हैं, इत्यादि...। (१०) चेष्टा-बिसेख ते बरनन 'सवैया' जथा- कसिबे मिस नींबी के छिन सो', अँग-अंगँन 'दास' दिखाइ रही । अपनी-हीं भुजॉन उरोजन को गहि, जाँघ सों जाँध मिलाइ रही। ललचोंहें, लजोहे, हँसोंहें चितै', हित सों चित-चाइ बढाइ रही । कॅनखा* करि के, पग-सी' परिकें, पुनि सूने सँकेत में जाइ रही। पा०-१. (प्र०) नहीं रहत तौ . । (प्र०-२) नाहिं रहत . । ( भा० जो०) (वें) हों जमान हों जानिदै,...। २. (प्र०) घर.... *, का० प्र० ( भानु०) पृ० २० । व्यं० म० (ला० भ०) पृ० २५ । ३. (भा० जी०) (३)...मिस नीबिन के छिन तौ,। (सु. ति०)(सु० स० )...मिस नीबि हि के छिन तो...४. (शृ० न०)...हँसोंहे, लजोहे, चितै, । ५. (सु० ति०) (सु० स०) कॅनखी...। ६. ( नि०) (सु० ति०) सो.... ७ (भा० जी०) कों...। . प्रतापगढ़ वाली हस्तलिखित प्रति में इस पूरे सवैया का पाठांतर इस प्रकार है-