पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/८४

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"एत्य निमन्ह भत्ता एल्य अहं एत्य परिमयो सडखो। पंथिम रसो क मा मह - समणे निमजहिसि ॥" अर्थात् - "होइत सोपति, सास उत, बखि किन्हि लै दिन-मोहि। परे पथिक, निसि-अंध तू , गिरियो जिन्हि कहुँ माहि॥" -गोविंद चतुर्वेदी, मथुरा, ब्यंग ते ब्यंग बरनन 'दोहा' जथा- त्रि-विधि व्यंगहू ते कदै, व्यंग अँनूप सुजॉन । उदाहरन ताको कहों, (नों सुमति दै कॉन ।। उदाहरन 'दोहा' जथा- अब फेरि मोहि कहैगी, कियौ न तू गृह-काज । कहै स करि आँऊ अबै, मुा- चहत दिनराज ।।. अस्य-तिलक यहाँ नायिका वा (माता) को प्रायुस मान निहोरो दै कहूँ (उपनायक से मिलने) जापौ चाहति है, ये व्यंगार्थ है। दिन-हीं में पर पुरुष सों बिहार किया चाहति है, दूसरी व्यंग है। वि०-"श्रार्थी व्यंजना का व्यंग्याथ कवि की इच्छा के अनुसार--'वाच्य', 'लक्ष्य' और 'व्यंग्य' रूप तीनों अर्थों में हो सकता है। अस्तु, उपयुक्त वैशिष्ट्य द्वारा होने वाली व्यंजना--'वाच्यसंभवा', 'लक्ष्यसंभवा' और 'व्यंग्य- संभवा' नाम से तीन प्रकार की कही बायगी। इसलिये यहाँ ( इस दोहा में) वाच्यार्थ-द्वारा क्ता के वैशिष्ट्य से नायिका की अपने प्रेम-पात्र के पास जाने की -उससे रति की, इच्छा व्यंग्याथ है। अतएव यह 'वाच्य-संभवा-व्यंजना' अथवा "वाच्यारथ--व्यंग ते व्यंग' को उदाहरन कयौ जापगौ।" ____ कन्हैयालाल पोद्दार ने अपनी 'रसमंजरी' नामक पुस्तक में दासजी के इस दोहे को इस प्रकार अपनाया है, यथा- पा०-१. अंबे फिरि ..। ३. (भा० जी० ) मुहि...। ३. (प्र०-२) तू न कियो गृह""1४. (प्र०-२) जो .. ५.(प्र.) मुदौ जात दिनराज । (सं०.प्र.) जात मुंदी"।

  • व्यं० म० (ला० भ० ) पृ० २५ ।