पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय सूचित करती है कि 'यही हमारे-तुम्हारे समागम का सुंदर संकेत-स्थल है। अथवा कोई परकीया नायिका अपने उपपति को उलाहना देती हुई कहती है कि 'तुम बड़े झूठे हो, वहाँ तुम गये-ही कब ? क्योंकि कमल-पत्र पर वक के निश्चल आनंद के साथ चुपचाप बैठे रहने से जाना जाता है कि यहाँ पूर्व में कोई भी महीं पाया था। यथा- "अथवा मिथ्या बदसि न स्वमत्राऽगतोऽभूरिति व्यंज्यते ।" -का०प्र० (संस्कृत) अस्तु, यह व्यंग्य से व्यंग्य है, अर्थात् व्यंग्य-संभवा व्यंजना है। दासजी के इस दोहे में प्रथम वाच्यार्थ रूप वक की निर्भयता-सूत्रक व्यंग्यार्थ है, तदनंतर इस निर्भपता-सूचक व्यंग्यार्थ से उस स्थान के एकांत होने के कारण 'रति की प्रार्थना' दूसरा व्यंग्यार्थ है, अर्थात् एक व्यंग्यार्थ दूसरे व्यंग्यार्थ का व्यंजक है-सूचक है । इसलिये व्यंग्य-संभवा-श्रार्थो व्यंजना है। पहिले व्यंग्य को प्रतीत करानेवाली 'वाचय-संभवा' है तो दूसरे व्यंग्य को बताने वाली व्यंग्य-संभवा ध्वनि है-व्यंजना है। ___ कन्हैयालाल पोद्दार ने अपनी 'रसमंजरी' में जो काव्यकल्पद्र म का ही दूसरा भाग है, दासजी की इस सुमधुर सूक्ति को इस प्रकार अपनाया है- "नलिनी-दन पै देखिए, लसत अचल बक-पाँति । मरकत-भाजन-माहि ज्यों, संख-सीप बिलसाति ॥" -२० मं० यहाँ पोद्दारजी का अपनी पाख्या में 'वक पंक्ति को शंख की कटोरी बताना' एक दम वाहियात-सा लगता है। दासजी के साथ पोद्दारजी ने यह उक्ति काव्य-प्रकाश (संस्कृत ) से ली है, जो वहाँ 'व्यंग्य से व्यंग्य के उदाहरण में प्रस्तुत की गयी है। साहित्य-दर्पण ( संस्कृत ) के रचयिता ने भी इसे 'अन्य- सानिधि-वैशिष्ठ य' के उदाहरण में देने को अपनाया है, यथा- "उन णिचलणिप्पदा मिसिणीपत्तंभि रहेह वलामा । पिलभमरग भभाषण परिडिमा संखसुत्तिन्य ॥" अर्थात् "पश्य निश्चलनिष्पंदा विसिनी पत्रे राजते बलाका । निर्मजमरकतभाजन परिस्थिता शंख शुक्तिरिव ॥" यहाँ पोद्दारजी के साथ इस संस्कृत सूक्ति में 'भाजन' और 'शुक्ति' शब्द विचारणीय है, जिसे पोद्दारजी के प्रति वाहियात कह पाये हैं। काव्य-प्रकाश