काव्य-निर्णय भाषा टीकाकार ( काव्य प्रकाश-टीका-हरमंगल शास्त्री, पृ० ११ ) ने 'भाजन' का अर्थ 'पात्र' और 'शुक्ति' का अर्थ सुतुही (सीप) और साहित्य-दर्पण के टीकाकार (पं० शालिग्राम शास्त्री-विमला टीका पृ०) ने 'भाजन' का अर्थ 'थाली' और शुक्ति का अर्थ 'सुदर' किया है। पोद्दारजी ने अपने दोहे में माजन को भाजन ही मानते हुए शुक्ति का पर्याय--वा अर्थ, 'सीप' अर्थात् 'शंख के श्राकार की 'बनी कटोरो' किया है। दासजी इस बखेड़े में नहीं पड़े हैं। अस्तु, जव साम्य-रूपक रूप शंख के द्वारा ही अभीष्ट-अर्थ में विशेषता श्रा जाती है, तब 'शुक्ति' का अर्थ 'सीप' और सीप का अर्थ शंख के श्राकार की बनी 'कटोरी' कहाँ तक ठीक है और वह भी संस्कृत-काव्यों के एक अहंमन्य मर्मज द्वारा, जो बड़े-बड़े संस्कृत-हिंदी के विद्वानों--काव्य-मर्मज्ञों पर अपनी नाक- भों सिकोड़ा करते हैं, किया गया अर्थ विचारणीय है। काव्य-प्रकाश की 'उद्योत' कार ने यहाँ लिखा है-"शंख शुक्ति शुक्त्याकारं शंखघटितं पात्रं । न तु मुक्ताशुक्तिः। तस्या बलाकावच्छवे तत्त्वाभावात् । शंख- शुक्ति पदस्य तत्रा सामर्थ्याच्च । अत्र चा चेतनोपमयालेशतोऽपि क्षोभाभावः।" ___ संस्कृत के कतिपय प्राचार्यों ने शब्द-शक्ति के अंतर्गत 'तात्पर्य-वृत्ति वा शक्ति के 'याकांक्षा,' 'सनिधि' और 'योग्यता' नाम के तीन भेदों का और कथन किया है। क्योंकि इनके मतानुसार आकांक्षा, योग्यता और संनिधि- पूर्ण शब्दों से वाक्यों का अर्थ सहज संबोध्य हो जाता है, अकेला शब्द पूरा अर्थ देने में असमर्थ होता है। यह तात्पर्य-वृत्ति कही जाती है । श्राकांक्षा- जहाँ शब्दों के अर्थ की प्राप्ति के लिये दूसरे शब्दों की चाहना रहती है, वह और 'सनिधि'-जहाँ शब्दों से अर्थ की प्राप्ति के लिये उससे संबंधित किन्हीं अन्य शब्दों के जोड़ने की मिलावट की आवश्यकता होती हो वहाँ कही जायगी। इसी प्रकार-जहाँ दूरान्वित शब्दों का अन्वय उनके सहचर शन्दों के साथ करने के लिये उन्हें यथा स्थल रखने की आवश्यकता हो, वहाँ 'योर ता- शक्ति' कही जायगी, इत्यादि । अस्तु, अत्यावश्यक होते हुए भी दासजी ने इनका वर्णन नहीं किया है।" "इति श्री सकलकलाधर-कलाधर बंसावतंस श्रीमन्महाराज कुमार बाबू. 'हिंदूपति' विरचिते 'काव्य-निरनए' वाचक लाञ्छनिक. व्यंजक पदारथ बरननं नाम द्वितीयोल्लासः।"
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