पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/९६

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काव्य-निलयः परिवृत्त-अवं कार बरनन 'दोहा' जथा- कछुकछु को बदलौ जहाँ, सों 'परिवृत' करि दीठि । कहा कहों मन-मोहन, मॅन लै दींनी पीठि ।। सूच्छंम अलंकार बरनन 'दोहा' जथा- संग्या-ही बातें किऐं', 'सूच्छम' भूषन नाम । निज-निज उर छवै छवै करी, सोहें स्याँमा-स्याँम ॥ परिकर अलंकार बग्नन 'दोहा' जथा- साभिप्राय बिसेसनॅन, 'परिकर' भूषन जॉन । देब चतुरभुज ध्याईऐ, चार पदारथ-दाँन ॥ वि०-"अन्य प्रतियों में, जिनमें प्रतापगढ़ और भारतजीवन प्रेस की प्रति प्रमुख हैं, 'सूक्ष्म' और 'परिकर' अलंकारों को पृथक्-पृथक् शीर्षक न दे कर एक ही शीर्षक 'सूच्छम' 'अलंकार बरनॅन' के साथ लिखा हुआ मिलता है।" सुभावोक्ति अलकार बरनन 'दोहा' जथा- सधी-सधी बात सों, 'सभावोक्ति' पैडचाँनि । हरि बाबत माँथे मुकट, लकुट लिऐ बर पाँ नि । वि०-"स्वभावोक्ति 'अलंकार शीर्षक' के अंतर्गत प्रतापगढ़ वाली प्रति में "काव्यलिंग, परिसंख्या, पृष्णोत्तर"-अादि तीन अलंकार एक साथ लिखे हैं।" काब्यलिंग अलकार बरनन 'दोहा' जथा- हेतु-समरन जुक्ति सों, 'काब्यलिंग' को अंग । धिग, धिग, धिग, जग राग-बिन, फिरि-फिरि कहत मृदंग ।। परिसंख्या-अल'कार बरनन 'दोहा' जथा- इहे एक नहिँ और कहि, 'परिसंख्या' निरसक । एक रॉम के राज में, रगौ चंद सकलंक ॥ पा०-१. (प्र०) छुप-छुइ...1