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काव्य पुरस्सर हो कर नाट्य व्यापार में नियोजित करता है, वही मूल संवित् परमार्थं में रस है। अब यह सहज में अनुमान किया जा सकता है कि रस विवेचना में संवित् का साधारणीकरण त्रिवृत् है। कवि, नट और सामाजिक में वह अभेद भाव से एक रस हो जाता है।

इधर एक निम्न कोटि की रसानुभूति की भी कल्पना हुई है। कुछ लोग कहते हैं कि 'जब किसी अत्याचारी के अत्याचार को हम रंगमंच पर देखते हैं, तो हम उस नट से अपना साधारणीकरण नहीं कर पाते। फलतः उस के प्रति रोष भाव ही जाग्रत होता है, यह तो स्पष्ट विषमता है।' किन्तु रस में फलयोग अर्थात् अन्तिम संधि मुख्य है, इन बीच के व्यापारों में जो संचारी भावों के प्रतीक हैं रस को खोज कर उसे छिन्न-भिन्न कर देना है। ये सब मुख्य रस वस्तु के सहायक मात्र हैं। अन्वय और व्यतिरेक से, दोनों प्रकार से वस्तु निर्देश किया जाता है। इसलिए मुख्य रस का आनन्द बढ़ाने में ये सहायक मात्र ही हैं, वह रसानुभूति निम्न कोटि की नहीं होती। इस कल्पना के और भी कारण हैं। वर्तमान काल में नाटकों के विषयों के चुनाव में मतभेद है। कथा वस्तु भिन्न प्रकार से उपस्थित करने की प्रेरणा बलवती हो गयी है। कुछ लोग प्राचीन रस सिद्धान्त से अधिक महत्व देने लगे हैं―चरित्र-चित्रण पर। उन से भी अग्रसर हुआ है दूसरा दल, जो मनुष्यों के विभिन्न मानसिक आकारों के प्रति कुतूहलपूर्ण