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पहले रङ्ग पूजा और मङ्गल पाठ के लिए होता था। कथा या वस्तु की सूचना देने का काम स्थापक करता था। रंगमंच की व्यवस्था आदि में यह सूत्रधार का सहकारी रहता था। किन्तु नाटकों में नान्द्यन्ते सूत्रधारः से जान पड़ता है कि पीछे लाघव के लिए सूत्रधार ही स्थापक का भी काम करने लगा।

हाँ, अभिनवगुप्त ने गद्य-पद्य मिश्रित नाटकों से अतिरिक्त राग काव्य का भी उल्लेख किया है। (अभिनव भारती अध्याय ४) राघव विजय और मारीच बध नाम के राग काव्य ठक्क और ककुभ राग में कदाचित् अभिनय के साथ वाद्यताल के अनुसार गाये जाते थे। ये प्राचीन राग-काव्य ही आजकल की भाषा में गीतिनाट्य कहे जाते हैं। इस तरह अति प्राचीन काल में ही नृत्य अभिनय से सम्पूर्ण नाटक और गीति-नाट्य भारत में प्रचलित थे। वैदिक, बौद्ध तथा रामायण और महाभारत काल में नाटकों का प्रयोग भारत में प्रचलित था।