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भूमि के दो भाग किये जाते थे। पिछले आधे के फिर दो भाग होते थे। आधे में रंगशीर्ष और रंगपीठ और आधे में पीछे नेपथ्य-गृह बनाया जाता था।

पृष्ठतो यो भवेत् भागो द्विधाभूतो भवेत् च सः
तस्यार्धेन विभागेन रंगशीर्षम् प्रयोजयेत्।
पश्चिमेतु पुनर्भागे नेपथ्यगृहमादिशेत्।

(२ अ॰ ना॰ शा॰)

आगे के बड़े आधे भाग में बैठने के लिए, जिससे दर्शकों को रंगशाला का अभिनय अच्छी तरह दिखलाई पड़े, सोपान की आकृति का बैठक बनाया जाता था। कदाचित् वह आज की गैलरी की तरह होता था।

स्तंभानाम् बाह्यतः स्थाप्यम् सोपानाकृति पीठकम्।
इष्टका दारुभिः कार्यम् प्रेक्षकाणाम् निवेशनम्।

ईंटों और लकड़ियों से ये सीढ़ियाँ एक हाथ ऊँची बनाई जाती थीं। इसी प्रसंग में मत्तवारणी का भी उल्लेख है। अभिनवगुप्त के समय में भी मत्तवारणी का स्थान निर्दिष्ट करने में संदेह और मतभेद हो गया था। नाट्य-शास्त्र में लिखा है―

रंग पीठस्य पार्श्वेतु कर्त्तव्या मत्तवारणी।
चतुस्तंभसमायुक्ता रंगपीठप्रमाणतः
अध्यर्ध हस्तोत्स्येधे न कर्तव्या मत्तवाणी।

मत्तवारणी के कई तरह के अर्थ लगाये गये हैं। अभिनव-