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आदर्शवादी न हो कर यथार्थवादी सा हो गया है। और तब उस में व्यक्ति वैचित्र्य का भी पूरा समावेश हो गया है। उस के भीष्म, द्रोण, कर्ण, दुर्योधन, युधिष्ठिर अपनी चरित्रगत विशिष्टता में ही महान हैं। आदर्श का पता नहीं; परन्तु ये महती आत्मायें मानो निन्दनीय सामाजिकता की भूमि पर उत्पन्न हो कर भी पुरुषार्थ के बल पर दैव, भाग्य, विधानों और रूढ़ियों का तिरस्कार करते हैं। वीर कर्ण कहता है―

सूतो वा सूतपुत्रो वा यो वा को वा भवाम्यहम्
दैवायत्तंकुलेजन्म ममायत्तं हि पौरुषम्।

उस के बाद आता है पौराणिक प्राचीन गाथाओं का साम्प्रदायिक उपयोगिता के आधार पर संग्रह। चारों ओर से मिला कर देखने पर यह भी बुद्धिवाद का, मनुष्य की स्व-निर्भरता कर, उस के गर्व का प्रदर्शन ही रह जाता है।

मानव के सुख-दुःख की गाथायें गायी गयीं। उन का केन्द्र होता था धीरोदात्त विख्यात लोकविश्रुत नायक। महाकाव्यों में महत्ता की अत्यन्त आवश्यकता है। महत्ता ही महाकाव्य का प्राण है।

नाटक में, जिस में कि आनन्द पथ का, साधारणीकरण का सिद्धान्त था, लघुतम के लिए भी स्थान था। प्रकरण इत्यादि में जन साधारण का अवतरण किया जा सकता था। परन्तु विवेक-परम्परा के महाकाव्यों में महानों की ही चर्चा आवश्यक थी।