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इस प्रसंग को अधिक विस्तार देने की आवश्यकता नहीं है। पाठक मूल में ही उसे पढ़ेंगे। यहाँ इसी के साथ अब भारतीय साहित्य की प्रमुख धाराओं और अंगों के संबंध में प्रसादजी की धारावाहिक समीक्षा का सारांश उपस्थित किया जाता है जो उन्होंने काव्य की अपनी मूल परिभाषा को स्पष्ट करते हुए की है। ऊपर कह चुके हैं कि प्रसादजी रहस्यवाद को आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति की मुख्य धारा मानते हैं। यह काव्यात्मक रहस्यवाद वैदिक काल के 'ऊषा' और 'नासदीय' सूक्तों में, अधिकांश उपनिषदों में, शैव शाक्तादि आगमों में, आगमानुयायी स्पंदशास्त्रों में, सौन्दर्य लहरी आदि रहस्यकाव्य में तथा सहजानन्द के उपासक नागप्पा, कन्हप्पा आदि आगमानुयायी सिद्धों की रचनाओं में मिलता है। बीच में इन रहस्यवादी संप्रदायों के 'बौद्धिक गुप्त कर्मकाण्ड की व्यवस्था भयानक हो चली थी और वह रहस्य वाद की बोधमयी सीमा को उच्छृंखलता से पार कर चुकी थी।' यही अवसर रहस्यवादियों के ह्रास का था। किन्तु फिर भी इस धारा का अत्यन्ताभाव कभी नहीं हुआ। पिछले खेवे भी तुकनगिरि और रसालगिरि आदि, सिद्धों के रहस्य संप्रदाय के शुद्ध रहस्यवादी कवि, लावनी में आनन्द और अद्वयता की धारा बहाते रहे। प्रसादजी का यह भी स्पष्ट मत है कि 'वर्तमान हिन्दी में इस अद्वैत रहस्यवाद की सौन्दर्यमयी व्यंजना होने लगी है। वह साहित्य में रहस्यवाद का स्वाभाविक विकास है। इसमें अपरोक्ष अनुभूति, समरसता, तथा प्राकृतिक सौन्दर्य