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का मन से और व्यायाम का शरीर से सीधा सम्बन्ध जोड़ कर वह लोक-यात्रा की उपयोगी वस्तुओं का संकलन करता है।

वर्तमान काल में सौन्दर्य-बोध की दृष्टि से यह वर्गीकरण अपना अलग विचार विस्तार करने लगा है। इसके आविर्भावक हेगेल के मतानुसार कला के ऊपर धर्म-शास्त्र का और उस से भी ऊपर दर्शन का स्थान है। इस विचार-धारा का सिद्धान्त है कि मानव सौन्दर्य-बोध के द्वारा ईश्वर की सत्ता का अनुभव करता है। फिर धर्म-शास्त्र के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति लाभ करता है। फिर शुद्ध तर्क ज्ञान से उस से एकीभूत होता है।

यह भी विचार का एक कोटि-क्रम हो सकता है; परन्तु भारतीय विचार-धारा इस सम्बन्ध में जो अपना मत रखती है वह विलक्षण और अभूतपूर्व है। काव्य के सम्बन्ध में यहाँ की प्रारम्भिक और मौलिक मान्यता कुछ दूसरी थी। उपनिषद् में कहा है—तदेतत् सत्यम् मंत्रेषु कर्माणि कत्रयो यान्यपश्यंस्ताति त्रेतायाम् बहुधा सन्ततानि। कवि और ऋषि इस प्रकार पर्यायवाची शब्द प्राचीन काल में माने जाते थे। ऋषयो मंत्र द्रष्टारः। ऋषि लोग या मन्त्रों के कवि उन्हें देखते थे। यही देखना या दर्शन कवित्व की महत्ता थी।

इतना विराट् वाङ्मय और प्रवचनों का वर्णमाला में स्थायी रूप रखते हुए भी कविता शुद्ध अमूर्त्त नहीं कही जा सकती। मूर्त्त और अमूर्त्त के सम्बन्ध में उपनिषद् में कहा है—द्वादेव ब्राह्मणो रूपे मूर्त्त चैयामूर्त्त च मर्त्यं वामृत च—ष्टहदारण्यक (२-३)