पृष्ठ:काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध.pdf/५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
(१६)

है। स्वाध्याय बुद्धि का यज्ञ है। कहा भी है—सत्यं च स्वाध्याय प्रयचने च—स्वाध्याय प्रवचन में सत्य का अन्वेषण करो। स्वाध्याय के द्वारा मानव सत् को प्राप्त होता है। हमारे सब बौद्धिक व्यापारों का सत्य की प्राप्ति के लिए सतत उद्योग होता रहता है। वह सत्य प्राकृतिक विभूतियों में, जो परिवर्तनशील होने के कारण अतृत नाम से पुकारी जाती हैं, ओत-प्रोत है। कुछ लोग कह सकते हैं कि कवि से हम सत्य की आशा न करके केवल सहृदयता ही पा सकते हैं; किन्तु सत्य केवल १+१=२ में ही नहीं सीमित है। अतृत को प्रायः बढ़ा कर देखने से सत् लघु कर दिया गया है; किन्तु सत्य विराट है। उसे सहृदयता द्वारा ही हम सर्वत्र ओत-प्रोत देख सकते हैं। उस सत्य के दो लक्षण बताये गये हैं—श्रेय और प्रेय। इसीलिए सत्य की अभिव्यक्ति हमारे वाङ्मय में दो प्रकार से मानी गई है—काव्य और शास्त्र। शास्त्र में श्रेय का आज्ञात्मक ऐहिक और आमुष्मिक विवेचन होता है और काव्य में श्रेय और प्रेय दोनों का सामजस्य होता है। शास्त्र मानव समाज में व्यवहृत सिद्धान्तों के संकलन हैं। उपयोगिता उनकी सीमा है। काव्य या साहित्य आत्मा की अनुभूतियों का नित्य नया-नया रहस्य खोलने में प्रयत्नशील है। क्योकि आत्मा को मनोमय, वाङ्मय और प्राणमय माना गया है। अयमात्मा वाङ्मयः, मनोमयः प्राणमयः (ष्टष्ठदारण्यक)। उपविज्ञात प्राण, विज्ञात वाणी और विजिज्ञास्य मन है।