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पिण्ड और ब्रह्माण्ड की एकता का जो प्रतिपादन किया गया है, संत मत में उसी का अनुकरण किया गया है।

यह भी कहा जाता है कि यहाँ उपासना, कर्म के साथ ज्ञान की धारा विशुद्ध रही और उस में आराध्य से मिलने के लिए कई कक्ष नहीं बनाये गये। किन्तु छान्दोग्य में जिस शून्य आकाश का उल्लेख दहरोपासना में हुआ है, उसीसे बौद्धों के शून्य और आगमों की शून्य भूमिका का सम्बन्ध है। फिर कबीर की शून्य महलिया शाम देश की सौगात कैसे कही जा सकती है? तं चेद् अ॒युर्यदिदमरिमन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म देहरोऽस्मित्रन्तराकाशः (छान्दोग्य॰) तथा―

पद्मकोशप्रतीकाशं हृदयं चाप्यधोमुखम्।

―इत्यादि श्रुतियों में नीवारशूकवत् तन्वी शिखा के मध्य में परमात्मा का जो स्थान निर्दिष्ट किया गया है, वह मन्दिर या महल कहीं विदेश से नहीं आया है। आगमों में तो इस रहस्य भावना का उल्लेख है ही, जिस का उदाहरण पर दिया जा चुका है।

श्रीकृष्ण का आलम्बन मान कर द्वैत-उपासकों ने जिस आनन्द और प्रेम की सृष्टि की उस में विरह और दुःख आवश्यक था। द्वैतमूलक उपासना के बुद्धिवादी प्रवर्त्तक भागवतों ने गोपियों में जिस विरह की स्थापना की वह परकीय प्रेम के कारण दुःख के समीप अधिक हो सका और उस का उल्लेख भागवत में विरल