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माधुर्य-महाभाव के उज्ज्वल नीलमणि को परकीय प्रेम के कारण गोप्य और रहस्यमूलक बनाने का प्रयत्न भी किया था, परन्तु द्वैतमूलक होने के कारण तथा वाह्य आवरण में बुद्धिवादी होने से यह विषय में साहित्यिक ही अधिक रहा। निर्गुण सम्प्रदायवाले संतों ने भी राम की बहुरिया बन कर प्रेम और विरह की कल्पना कर ली थी; किन्तु सिद्धों की रहस्य सम्प्रदाय की परम्परा में तुकनगिरि और रसालगिरि आदि ही शुद्ध रहस्यवादी कवि लावनी में आनन्द और अद्वयता की धारा बहाते रहे।

साहित्य में विश्वसुन्दरी प्रकृति में चेतनता का आरोप संस्कृत वाङ्मय में प्रचुरता से उपलब्ध होता है। यह प्रकृति अथवा शक्ति का रहस्यवाद सौन्दर्यलहरी के शरीरं त्वं शम्भी का अनुकरण मात्र है। वर्तमान हिन्दी में इस अद्वैतरहस्यवाद की सौन्दर्यमयी व्यञ्जना होने लगी है, वह साहित्य में रहस्यवाद की स्वाभाविक विकास है। इस में अपरोक्ष अनुभूति, समरसता तथा प्राकृतिक सौन्दर्य के द्वारा अहं का इदम् से समन्वय करने का सुन्दर प्रयत्न है। हाँ, विरह भी युग की वेदना के अनुकूल मिलन का साधन बन कर इसमें सम्मिलित है। वर्त्तमान रहस्यवाद की धारा भारत की निजी सम्पत्ति है, इस में सन्देह नहीं।