आठवीं छाया गूढव्यंग्या और अगूढ़व्यंग्या काव्यप्रकाश के मतानुसार उपयुक्त प्रयोजनवनी सक्षणा के छह भेद व्यंग्य की गृढ़ता और अगृढ़ता के कारण बारह प्रकार के होते हैं। प्रयोजनवती लक्षणा के भेदों में ये पाये जाते है। प्रयोजनवती के जो प्रयोजन है वे ही व्यंग्यार्थ होते हैं। गूढव्यंग्या जहाँ का व्यंग्य मार्मिक सहृदय द्वारा ही समझा जा सके वहाँ गृढव्यंग्या लक्षणा होती है । जैसे- चाले की बातें चली सुनति सखिन के टोल। गोये हू लोयन हँसत विहँसत मात कपोल ॥-बिहारी अर्थ है-नायिका सखियों की मंडली में अपने चाले (गौने) की बातें सुन रही है । आँखे छिपाने पर भी हँसती हैं और कपोल मुस्कुरा रहे हैं। कपोलों के विहँसने या मुस्कुराने में मुख्यार्थं की बाधा है। क्योकि हँसने का काम मनुष्य का है, कपोलों का नहीं। यहाँ विहँसना का लक्ष्वार्थ उल्लसित होना- प्रसन्नता की झलक दिखाना है। विहँसने और कपोलों के झलकने में विकास आदि अनेक गुणों का साम्य है । इससे सादृश्य सम्बन्ध है। यहां संचारी भाव सजा और हर्ष से नायिका का 'मश्या' होना व्यंग्य है। वह सहृदय-संवेद्य हो है । साधारण बुद्धिवालों के परे है। इसीसे गूडव्यंग्या है । सादृश्य-कथन से गौणी और विहँसत के अपना अर्थ छोड़ देने के कारण लक्षणलक्षणा है । अगूढ़व्यंग्या जहाँ व्यंग सहज ही समझ में आ जाय वहाँ अगूढव्यंग्या लक्षणा होती है। जैसे- संयोगिन की तू हरै उर पीर वियोगिनी के सु धरै उर पीर । कलीन खिलाय करै मधुपान गलीन भरै मधुपान को भीर ।। नचे मिलि बेलि बधू कि अंचे रस 'देव' नचावत आधि अधीर। तिहूँगुन देखिये दोष भरो बरे सीतल मंद सुगंध समोर ॥ यह वसन्त-समौर का वर्णन है । 'प्राधि-अधीर को नचाना' से मानो वेदना से व्यथित को क्षण-क्षण विवश कर देना' रूप अर्थ लक्षित होता है। दुःखातिशय व्यंग्य है । सरलता से बोध होने के कारण यहां अगूढव्यंग्या है ।
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