पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१२८

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काव्यदर्पण यहाँ श्लेष नहीं। क्योंकि रूढ वाच्याथ ही इसमें प्रधान है। अन्य अर्थ का आभास-मात्र है । श्लेष में शब्द के दोनों अर्थ अभीष्ट होते हैं-समान रूप से उस पर कवि का ध्यान रहता है । विशेष बिवेचन आगे देखिये । अप्रासंगिक अर्थ का व्यंजना के स्थलों में अनेकार्थों को शक्ति रोकने के लिए अर्थात् शक्ति को प्रासंगिक अर्थ के प्रतिपादन में केन्द्रित करने के लिए प्राचीन विद्वानों ने जो संयोगादि कई प्रतिपादन नियत कर रक्खे है उनके लक्षण तथा उदाहरण दिये जाते हैं- १ संयोग अनेकार्थ शब्द के किसी एक ही अर्थ के साथ प्रसिद्ध सम्बन्ध को संयोग कहते हैं। जैसे- शंख-चक्र-युत हरि कहे, होत विष्ण, को ज्ञान । 'हरि' के सूर्य, सिह, वानर श्रादि अनेक अर्थ है ; किन्तु शंख-चक्र-युत कहने से यहां विष्णु का हो ज्ञान होता है । २ वियोग जहाँ अनेकार्थवाचक शब्द के एक अर्थ का निश्चय किसी प्रसिद्ध वस्तु सम्बन्ध के अभाव से होता है वहाँ वियोग होता है । जैसे- नग सूनो बिन मूदरी। नग का अर्थ नगीना और. पर्वत है। किन्तु, यहाँ मुंदरी होने से नगीना हो अर्थ होगा। क्योंकि मुंदरी का वियोग इसी अथं को नियत करता है । ___३ साहचर्य जहाँ पर किसी सहचर-साथ रहनेवाले की प्रसिद्ध सत्ता से अर्थ-निर्णय हो वहाँ साहचर्य होता है। बलि-बलि जाउँ कृष्ण बल भैया। यहां 'बल' के अनेक अर्थ होते हुए भी कृष्ण के साहचर्य से बलराम का ही अर्थ-बोध होगा। ४ विरोध जहाँ किसी प्रसिद्ध असंगति के कारण अर्थ-निर्णय होता है वहाँ होता है। जैसे- कंबर हरि सम लड़त निरंतर बंधु युगल रख भारी अंतर । राम