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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१३३

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प्रार्थी व्यंजना वक्तृवैशिष्ट्योत्पन्नव्यंग्यसंभवा जहाँ व्यग्य होता है वहाँ यह भेद होता है । निरखि सेज रंग रंग भरी, लगी उसासै लैन । कछु न चैन चित में रह्यो, चढ़त चाँदनी रैन । एमाकर कोई सखी किसी नायक के प्रति नायिका की मनोदशा का निवेदन करती है। कहती है कि वह अपनी सेज को रंग से रंगी देखकर उसांस पर उसांस लेने लगी। चांदनी रात आने पर उसके चित्त में जरा भी चैन नहीं। यहां सेज को रंग से रँगी देखकर नायिका का उसासें लेना और चांदनी रात को चैन न पड़ना आदि वाच्यार्थ से प्रियतम के अभाव में उद्दीपक चीजों का अत्यन्त दुःखदायी प्रतीत होना व्यंग्य है और इस व्यग्यार्थ से एक दूसरे इस व्यग्यार्थं का भी बोध होता है कि 'तुम (नायक) बड़े निष्ठुर हो। तुम्हारे विना वह (नायिका) तड़पती रहती है। पर तुम्हें इसका कुछ भी गम नहीं। तुम्हे इस चाँदनी रातवाली होली में उससे (नायिका से) विलग नहीं रहना चाहिए।' यहाँ दूसरा व्यग्य पहले व्यंग्य से संभव होता है पर वातृवैशिष्ट्य द्वारा हो । अतः यहाँ उक्त प्रार्थी व्यंजना है। (२) बोद्धव्यवैशिष्ठ्योत्पन्नवाच्यसंभवा जहाँ श्रोता की विशेषता के द्वारा व्यंग्यार्थ का बोध हो, वहाँ बोद्धव्यवैशिट्योत्पन्न आर्थी व्यंजना होती है। खोके आत्मगौरव, स्वतन्त्रता भी जीते है। मृत्यु सुखदायक है। वीरो, इस जीने से ॥ वियोगी यहाँ यह व्यंग्याथ सूचित होता है कि जैसे हो वैसे स्वतन्त्रता प्राप्त करो और विलासी जीवन को जलाञ्जलि दे दो! यहाँ बोद्धव्य की ही विशेषता से यह व्यंग्य निकलता है। क्योंकि, यहां विलासमय जोवन वितानेवाले वीरों से ही यह कहा गया है। वक्तृवैशिष्ट्य के समान बोधव्य श्रादि के भी लक्ष्यसंभवा और व्यंग्यसंभवा भेद होते हैं। (३) वाक्यवैशिष्ट्योत्पन्नवाच्यसंभवा जहाँ सम्पूर्ण वाक्य की विशेपता से व्यंग्यार्थ प्रकट होता है वहाँ यह भेद होता है। जैसे- जेहि विधि होइहिं परम हित, नारद सुनहु तुम्हार। . सोइ हम करब न आन कछ, बचन न वृथा हमार ॥ तुलसी ,