पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१३४

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काव्यदर्पण एक बार नारदजी ने विष्णु भगवान से उनका रूप मांगा, जिससे उनकी अभिलषित राजकन्या मोहित होकर उन्हें वर ले। इस रूपभिक्षा पर भगवान ने कहा कि मैं सत्य कहता हूँ कि वही उपाय कगा, जिससे तुम्हारा हित हो । नारद ने इस बाक्यार्थ से अपनी अभीष्ट-सिद्धि समझ ली। मगर, वाच्यार्थं से यहाँ इस व्यंग्याथ का बोध होता है और वास्तव में भगवान के कहने का प्रयोजन भी यही है कि तुम्हें मै अपना रूप नहीं दूंगा। क्य कि, इससे तुम्हारा हित नहीं, अहित होगा । यहाँ सारे वाक्य को विशेषता से वाक्यसंभवा अर्थी व्यंजना है। (४) अन्यसंनिधिवैशिष्ट्योत्पन्नवाच्यसंभवा अन्य की समीपता या उपस्थिति में वक्ता बोद्धव्य से जो कुछ कहे उससे जो व्यंग्य निकले अर्थात् एक कहे, दूसरा सुने और तीसरा समझे वहाँ यह भेद होता है । जैसे- रोज करौ गृहकाज, दिन बीतत याही माँझ। .. ईठि लहाँ फल एक पल, नीठि निहारे साँझ ॥ दास । दिन तो काम-काज करने में हो बीत जाता है। अभिप्राय यह कि दिन में अवकाश नही है । नीठि ( बड़ी कठिनाई से ) देखते-देखते शाम को थोड़ा-सा ईठि फल अर्थात् प्रकाश पा जाती हूँ। सास से कहनेवाली ने उपपति को संध्या समय पाने का संकेत किया । यह व्यंग्य अन्यसनिधि की विशेषता से ही व्यक्त होता है । (५) वाच्यवैशिष्ट्योत्पन्नवाच्यसंभवा जहाँ वाच्य अर्थात् वक्तव्य की विशेषता से व्यंग्य प्रकट हो वहाँ बाच्यवैशिष्ट्योत्पन्नवाच्यसंभवा आर्थी व्यंजना होती है। अखिल यौवन के रंग उभार, हड्डियों के हिलते कंकाल; कचों के चिकने काले व्याल, केंचुली कांस सेवार; गूजते हैं सबके दिन चार । सभी फिर हाहाकार । पन्त इसमें वायवैशिष्ट्य से संसार की असारसा व्यग्य है। मैं हूँ वहीं जिसको किया था विधि-विहित अर्धांगिनी। भूले न मुझको नाथ हूँ मैं अनुचरी चिरसंगिनी ॥ गुप्तजी. ' शोक प्रकरण में चिरसंगिनी, अर्धागिनी आदि शब्द। से यह व्यग्यार्थ प्रकट कि अभिमन्यु को अपने साथ उत्तरा को भी ले जाना आवश्यक था ।