पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१५१

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काव्यदप वाह्य का एक उदाहरण- सुभ सीतल मंद सुगंध समीर कछू छल छंद सो छू गये हैं। 'पदमाकर' चांदनी चंदहु के कछु औरहिं डौरन च्वे गये हैं। मनमोहन सौं बिछुरे इतही बनि के न अबै दिन गये हैं। सखि, वे हम वे तुम वेई बने पै कछू के कछू मन ह वै गये हैं। ब्रजवनिताओ का यह विरह-वर्णन है। इसमें कृष्ण प्रालबन विभाव, मन का कुछ का कुछ हो जाना अनुभाव है और संचारी है-चिता, उत्कंठा, दैन्य श्रादि । उद्दीपन विभाव हैं-समोर, चद्र, चाँदनी आदि । ये सभी बाह्य उद्दीपन हैं। इन्हें तटस्थ भी कह सकते हैं। ऊपर के उदाहृत पद्यो से यह स्पष्ट है कि यदि इनमें उद्दीपन का वर्णन न होता तो ब्रज-वनिताओं का प्रेम जाग्रत नहीं होता। इसमें सन्देह नहीं कि उनका कृष्ण में अनुराग था, पर उद्दीपन के कारण ही वह उभरा; वह अधिकाधिक प्रदीप हो उठा। आलंबन की चेष्टाएँ, प्राकृतिक दृश्य, वाह्य परिस्थितियाँ आदि आज भी उद्दीपन का काम करती है । उद्दीपन में कोई अन्तर नहीं । कारण यह कि भावों में मलतः कोई भेद नहीं। आज भी जैसे भ्र नेत्रादि-विकार शृङ्गार रस में उद्दीपन का काम करते हैं, वैसे ही विचित्र वेषभूषा आदि हास्य के उद्दीपन बने हुए हैं। आचार्यों ने विभाव की जो गणना भावों में नहीं की, उसका कारण यही है कि विभाव-श्रालंबन और उद्दीपन-भावुकों के भावुक हृदय के बाहर की वस्तुएँ हैं। यद्यपि काव्य के पाठकों के समक्ष विभाव का मानस प्रत्यक्ष होता है, फिर भी बाह्य पदार्थ तथा उसकी मानस-कल्पित मूर्ति, दोनों ही वाह्य वस्तु ही समझी जाती हैं। इनमें कोई अन्तर नहीं। नाटक-सिनेमा में दर्शकों को इनका चातुष प्रत्यक्ष भी होने लगा है। श्रालंबन विभाव प्रायः काव्यगत पात्र ही होते हैं और उद्दीपन विभाव परि- स्थिति-विशेष है। उद्दीपन विभाव वालंबन विभाव के रति आदि स्थायी भावों को जाग्रत करके उनकी वृद्धि के कारण होते हैं। नवी छाया अनुभाव जो भावों के कार्य हैं या जिनके द्वारा रति आदि भावों का अनुभव होता है उन्हें अनुभाव कहते हैं। भाव के अनु अर्थात् पीछे उत्पन्न होने के कारण वह अनुभाव कहा जाता है।