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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१५९

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काव्यदर्पण बारहवीं छाया अनुभाव-विवेचन अंगज तथा स्वभावज स्त्रियो के अलकार, सात्विक भाव और रति आदि से उत्पन्न अन्य चेष्टाएँ अनुभाव कहलाती हैं।' ___दपणकार का लक्षण इस प्रकार है-"सीता आदि प्रालंकन तथा चन्द्र श्रादि उद्दीपन कारणों से राम आदि के हृदय में उबुद्ध रति आदि का बाहर प्रकाशित करनेवाला. लोक में रति का जो कार्य कहलाता है वही काव्य और नाटक में अनुभाव कहलाता है।" ___किन्तु, इनके अतिरिक्त और भी अनुभाव हैं, जिनका उल्लेख ऊपर की दो पंक्तियों में किया गया है। उनसे स्पष्ट है कि स्त्रियों के अलंकार भी अनुभाव के अन्तर्गत है, जो बालंबन से ही तबंध रखते है। अट्ठाईस अलंकारो में भाव, हाव, हेला, शोभा, कान्ति, दीप्ति, माधुर्य, प्रगल्भता, औदार्य और धैर्य ये दस अलंकार पुरुषों में भी हो सकते हैं, पर स्त्रियों में हो अधिक चमत्कारक होते हैं। इससे यह कहना संगत नहीं कि केवल आश्रय की चेष्टाएँ ही अनुभाव के अन्तर्गत पा सकती हैं १ अनुभाव में बालबन की चेष्टाएँ भी सम्मिलित हैं। ___ अनुभावों के सानुराग परम्परावलोकन, अभंग, लीला, विलास, औदार्य रोमांच, चाटुकारिता आदि असंख्य प्रकार हैं। ये सब कायिक, साविक, मानसिक श्राहार्य में बाँट दिये गये है। कायिक में शारीरिक चेष्टाएँ आती हैं। साविक अनुभाव स्वतः उद्भूत होते है। ये सत्व गुण से उत्पन्न होने के कारण साविक कहलाते हैं । ये भी एक प्रकार के अकृत्रिम अंग-विकार ही हैं । प्रमोद आदि मनो- वृत्तियाँ है। इससे ये मानसिक अनुभाव हैं। किन्तु, ये वाह्य चेष्टाओं से लक्षित होती हैं। इसी कारण इनको कायिक अनुभाव के अन्तर्गत मानना ठीक नहीं है ; क्योंकि इनमें मुखविकास श्रादि वाय चेष्टानों की प्रधानता नहीं है। वेशरचना श्रादि कायिक चेष्टाओं से अतिरिक्त होने के कारण अाहार्य कहलाते है । इन चारों के अतिरिक्त उक्तियों के रूप में जो अनुभाव प्रकट होते है वे वाचिक कहलाते हैं। सूरदासजी की रचनाओं में उक्तियों का अत्यधिक विधान पाया जाता है । उर में माखनचोर गड़े अब कैसह निकसत नहीं ऊधौ । तिरछे है जो अड़े।-सूर 'हाव' अनुभाव के अन्तर्गत ही है। हिन्दी लक्षण-ग्रन्थों में ही नहीं, संस्कृत के श्राकर ग्रन्थों में भी यही बात है। अंगज अलंकारों में हाव' को गणना है और १सक्ताः स्त्रीणामलंकाराः मङ्गजाश्च स्वभावाः। तपा सात्विका भावा तथा चेटाः परा अपि । साहित्यदर्पण