काव्यदर्पण तेरहवीं छाया संचारी भाव संचरणशील अर्थात् अस्थिर मनोविकारों या चित्तवृत्तियों को संचारी भाव कहते हैं। ये भाव रस के उपयोगी होकर जलतरंग की भाँति उसमें संचरण करते हैं। इससे ये संचारी भाव कहे जाते हैं। इनका दूसरा नाम व्यभिचारी है। विविध प्रकार से अभिमुख-अनुकूल होकर चलने के कारण इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहते हैं। ये स्थायी भाव के साथी हैं। रस के समान ही सचारी भाव भी व्यजित या ध्वनित होते हैं । इनकी तैंतीस संख्या मानी गयी है । १. निर्वेद दारिद्रय, ईष्या, अपमान, आपत्ति, व्याधि, इष्टावयोग, तत्वज्ञान आदि के कारण अपनेको कोसने वा धिक्कारने का नाम निर्वेद है। इसमें दीनता, चिन्ता, अश्रुपात आदि अनुभव होते हैं । हाय ! दुर्भाग्य इन आँखों से विलोका है मैंने आर्यपति को गंवाते नेत्र अपने-वियोगी यह जयचंद के अपमान से उत्पन्न निर्वेद को व्यञ्जना है। बालपनी गयो खेलन में कुछ धौस गये फिर ज्वान कहाये। रीशि रहे रस के चसके कसके तरुनीन के भाव सुहाये। पैरिबी सिंधु पर्यो नम को लम को करि मोजन खोजन पाये। बनी प्रवीन' विसै चहि रे कबहूँ नहि रे गुन गोविंद गायें। इसमें भगवान के भजन न करने के कारण उत्पन्न खेद से, तस्व-शान से भी निद संचारी भाव की व्यञ्जना है। टिप्पणी-निवेद का स्थिर स्वरूप तो शांत रस का स्थायी भाव है, जिसके मल में स्थिर वैराग्य वा तत्वज्ञान रहता है। किन्तु जब यह किसी प्राघात से कुछ बयों के लिए हृदय पर प्रतिविदित होता है तो अन्य रसों में संचरण के कारण निवेद संचारी भी कहा जाता है। २. ग्लानि अम, मनस्ताप, भूख, प्यास आदि से मन को मुरझाइट, मलिनता, खिन्नता श्रादि होने को ग्लानि कहते हैं। इसके कार्य में अनुत्साह आदि अनुभाव होते हैं । मावेगों से विपुल-विकला शोरणे काय कृशोगी। चिन्तामा स्पषितहल्या गुरुकभोळा मधील ।
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