पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१६४

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१ उपर भरे को जो मैं गोत को गुजर होती . घर की गरीबी माहि, गालिब ग्रहौती ना।.. . - .रावरे वरन अरविर - अनुरागत . हौ--- -- ... मांगत हौं दूध दही माखन मठौती ना.।' याहू ते कहो तो और हो तो अनहोती कहाँ साबुत दिखात कंत, काठ को कठौती ना। छुधा छीन दीन बाल बालिका बसनहीन हेरत न होती देव द्वारिका पठौती ना।-सुदामाचरित इसमें दीनता संचारी को व्यं ना है। 8. चिन्ता इष्ट वस्तु को अप्राप्ति आदि से उत्पन्न ध्यान का नाम चिन्ता हैं। . मन में सूनापन, संताप, ऊँचो सांस लेना, अधोमुख होना आदि इसके अनुभाव हैं। भोर ही भुखात ह हैं कंद मूल खात ह हैं दुति कुम्हलात कै हैं मुख जलजाल को। प्या पग जात हू हैं मग मुरझात ह है थकि जै हैं धाम लगे स्याम कृष्ण गात को। 'पण्डित प्रवीन' कहै धर्म के धुरीन ऐसे मन में न राख्यो पीर प्रण राख्यो तात को। मातु कहै कोमल कुमार सुकुमार मोरे छौना है हैं सोअत बिछौना करि पात को । इसमें राम की माता ने पुत्र के क्लेशों को जो कल्पना की है उससे चिन्ता को व्यंजना है। आज बाँधी नहीं करि सखि न गूंथा हार । और सुमनों से किया तुमने नहीं शृङ्गार। अच, छल-छल लोचनों में क्यों न जाने, एक । वेदना-सी वस्तु कोई कर रही अभिषेक-- --- . आज कैसे कर सकोगी प्राणधन को प्यार। . हाय ! बॉधी नहीं कवरी, सखि न मूथा हार ।-आरती. व शृङ्गार के परित्याग श्रादि से चिन्ता सूचित होती है। --- .