पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१६५

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काव्यदर्षया १०. मोह भय, वियोग, दुःख, चिता श्रादि से उत्पन्न चित्त-विक्षेप के कारण यथाथज्ञान का खो जाना मोह है। शान लुप्त होना, गिरना, चिन्ता, भ्रम, सामने की वस्तु को मी न देखना श्रादि इसके कार्य हैं। क्या करूं कैसे करूं, सब कुछ हुआ विपरीत जीवन, कप पर जाती कलश ले नीर लेने हेतु जब मैं पर ले जाते उन्हें अनजान में यमुना नदी तट । भट्ट यहाँ चिन्ता की विवशता से मोह व्यंग्य है । दूलह श्री रघुवीर बने दुलही सिय सुन्दर मंदिर माँहीं। गावत गीत सबै मिलि सुन्दर बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं । राम को रूप निहारत जानकी ककन के नग की परछाहीं । याते सबै सुधि भूलि गई कर टेक रही पल टारत नाहीं । तुलसी यहाँ सुख से उत्पन्न मोह की व्यञ्जना है। ११. स्मृति सारव वस्तु के दर्शन तथा चिन्तन आदि से पहले के अनुभून सुख, दुःख आदि विषयों का स्मरण ही स्मृति है । इसमें भौंहों का चढ़ना आदि कार्य होते हैं। लाई सखि मालिने थी गली उस बार जब जंबू फल जीजी ने लिये थे तुम्हें यार है? मैमे थे रसाल लिये देवर खरे थे वहीं हसकर बोल उठे निज-निज स्वाद है। मैने कहा-रसिक, तुम्हारी रुचि काहे पर? बोले-देवि, दोनों ओर मेरा रसवार है। दोनों का प्रसाद-मागी हूँ मैं हाय भाली भाज विषि के प्रसाव से विनोद भी विषाव है। गुस' इन पयो में अनुभूत सुख-दुःख के स्मरण से स्मृति संचारी व्यजित है। १२. धृति तस्वज्ञान, इष्टप्राप्ति आदि के कारण इच्छात्रों का पूर्ण हो आना धृति है। विपति से लाभ, मोह, आदि के अनेक उपद्रवों से चंचल-चित्त न होना भी धृति है। किसी वस्तु को प्राप्ति का अप्रास वा नाश से शोक न करना, संतृसता, मानन्द बचन, मधुर स्मित पिरता आदि इसके अनुभाव ।