१२२ काव्यदर्पणः भी उनके रति-भाव आदि का अनुमान होने लगता है। यद्यपि समाजिक नाटक के पात्रों को दुष्यन्त आदि समझते हुए ही रति आदि का अनुमान करते हैं तथापि वस्तु-सौंदर्य के बल से, चमत्काराधिक्य से रसनीयता आ जाती है। उनसे सामा- जिकों को यह ख्याल नहीं होता कि हम रति आदि का अनुमान दूसरे में करते है। ऐसे ही नट यद्यपि अनुकरण हो करते हैं तथापि अपने नाट्यकौशल से अनुकार्य की ही रति आदि का तद्र प ही अनुभव करने लगते हैं। इससे उन्हे भी रस की चर्वणा होती है। सारांश यह कि नट या काव्य के पाठक को दुष्यन्त समझकर उनकी रति का अनुमान ही रस हो जाता है। नाटक आदि के कृत्रिम विभाव आदि को स्वाभाविक मानकर रति आदि का अनुमान कर लिया जाता है। उसीसे रस का स्वाद प्राप्त होता है। पहले में तद्र पता की विशेषता है जो दूसरों में हो वर्तमान रहती है ; अपने में वह दिखाई नहीं पड़ती। इस मत में जैसे नटरस का श्रास्वाद लेते हैं, वैसे सामाजिक भी। प्रकारान्तर से आत्मा में भी उसका कुछ न कुछ प्रवेश हो ही जाता है। तीसवीं छाया रसनिष्पत्ति में भोगवाद भरतसत्र के तीसरे व्याख्याता भट्टनायक का मत सांख्यशास्त्र के सिद्धान्त के अनुकूल है। शंकुक का यह विचार कि रस का अनुमान होता है, उन्हें उचित' प्रतीत नहीं हुआ । कारण यह कि आनन्द प्रत्यक्ष अनुभव का विषय है, न कि अनुमान का । एक व्यक्ति में उद्भत रस का श्रास्वादन अन्य व्यक्ति में अनुमान द्वारा नहीं हो सकता। अनुमान ज्ञान से किसी वस्तु का भी हो, प्रत्यक्ष ज्ञान के समान अानन्द प्राप्त नहीं होता । रति आदि भाव को सुन्दरता के या चमत्कार के अनुमान से आनन्द उपलब्ध हो जा सकता है, यह कल्पना असंगत है। क्योंकि नाटक के पात्रों में न तो रस का अनुमान होता है और न अनुमान से सामाजिकों में रस ही प्रतीत होता है। वास्तव में उन्हें भोगात्मक आनन्द होता है। इनके मत में वे संयोग का अर्थ भोज्यभोजकभाव सम्बन्ध है और निष्पत्ति का अर्थ भुक्ति वा भोग है । विभावादियों के इस सम्बन्ध से रस को निष्पत्ति होती है। 3 . भट्टनायक का भोगवाद 7 भट्टनायक के मत का सारांश यह है कि काव्य शब्दात्मक है। शब्दात्मक काव्य. को, तोन क्रियाएँ होती हैं। वे ही रस-बोध के कारण होती हैं । वे हैं-
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