१२८ काव्यदर्पण हो सकते हैं ; जब उससे रसोद्रेक हो । चित्र, मूर्ति श्रादि में कलाकार की कुशलता से हमें केवल सौंदर्य को अनुभूति होती है ; किन्तु काव्य ऐसी वस्तु है, जिससे हमें रखानुभूति भी होती है। यहां तक कि संगीत भी यदि काव्य का सहारा न ले, तो हृदय में रस का उद्रेक नहीं कर सकता। उपयुक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि अन्यान्य कलाओं से हममें रसानुभूति नहीं, बल्कि सौंदर्यानुभूति होती है। सौंदर्यानुभूति हमें मुग्ध कर सकती है, पर उसका कोई स्थायी प्रभाव हमारे हृदय में नहीं होता ; क्योंकि भाव-तन्मयता को शक्ति उसमें नहीं होती। काव्य की जो शक्ति अपनी अभिव्यक्ति से हमें पाक- र्षित और अधिक काल के लिए प्रभावित करती है, वह उसको भाव-विदग्धता या रसानुभूति है। कविता को केवल सुन्दर बनाना उसका महत्व नष्ट करना है। कवि या पाठक जो सुन्दरता पर मुग्ध होते हैं वह उसका वाह्य गुण है जिस- पर पाश्चात्य समीक्षक मुग्ध हैं और उसीको सर्वेसर्वा मान बैठे हैं। रसानुभूति के अनन्तर कवि को काव्यकला को उसकी सौंदर्यानुभूति को प्रशंसा की जा सकती है। इससे स्पष्ट है कि काव्यकला अन्याय ललित कलाओं को अपेक्षा कहीं ऊँचे स्तर पर है। पैंतीसवीं छाया काव्यानन्द के कारण यह बात सिद्धान्ततः स्थिर हो चुकी है कि काब पढ़ने सुनने वा नाटक सिनेमा देखने से रसिकों को जो आनन्द होता है वह साधारणीकरण से कुछ के मत से काव्यगत पात्रों के साथ रसिकों का तादात्म्य होने से प्रानन्द होता है। ___ तादात्म्य का अर्थ है काव्य तथा नाटक के पात्रों के मनोविकारों के साथ समरस वा सहधर्मी होना। हमें तो सर्वत्र तादात्म्य के स्थान पर 'साधारणीकरण' शब्द का ही प्रयोग अभीष्ट है। पर यह प्राचीन पारिभाषिक शब्द नये तादात्म्य शब्द के प्रचलन से दवता जाता है। किसी प्रकार का पात्र क्यों न हो उसके मानसिक विकारों में तन्मय होना हो तादात्म्य का यथार्थ अर्थ है। सजा हरिश्चन्द्र जब स्वप्न में दिये हुए दान को भी सच्चा समझ दानपात्र को दे देते हैं, तब हम उनको सत्यता के साथ समरस हो जाते हैं। ऐसे ही स्थानों में काव्य-नाटक के पात्रों की भावनाओं के साथ रसिकों की भावना का वाद अर्थात् मेल खाता है। हरिश्चन्द्र के इतना करने पर भी जब जहाँ विश्वामित्र अपनी उग्रता हो प्रकट करते हैं, उनके नम्र वचन पर भी ऋद्ध रूप ही दिखलाते हैं,
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