साधारणीकरण मे मतभेद १३५ भ्रम्यजन्य नही । क्रीड़ारूप आत्म-विकार का आनन्द प्राप्त करने के लिए कवि सरस काव्य लिखता है और रसिक उसी प्रकार का आनन्द प्राप्त करने के लिए सरस काव्य पढ़ता है। अड़तीसवीं छाया साधारणीकरण में मतभेद साधारणीकरण के सम्बन्ध में आचार्य भी एकमत नहीं कहे जा सकते । पर उनमें एक ही बात है, ऐसा कहा जा सकता है। विचार किया जाय। प्रदीपकार कहते हैं कि भावकत्व का अर्थ है साधारणीकरण । उसी व्यापार से विभाव आदि और स्थायी भाव का साधारणीकरण होता है । सीता आदि विशेष पात्रों का साधारण स्त्री समझ लेना यही साधारणीकरण है। स्थायी और अनुभाव आदि का साधारणीकरण सम्बन्ध-विशेष से स्वतंत्र होना हो' है। साधारणीकरण के आविष्कारक भट्टनायक का यही मत है । इसकी व्याख्या श्राचार्यों ने अनेक प्रकार से की है और प्रायः इसी का उपपादन किया है । अभि- व्यक्तिवाद भी इस मत को मानता है ; अर्थात् साधारणीकरण को स्वीकार करता है। किन्तु, भावना और भोग को शब्द का व्यापार नहीं मानता, बल्कि उन्हें व्यंजना द्वारा व्यंजित ही मानता है । अभिनवगुप्त का अभिप्राय यह है कि भावना शब्द का अर्थ यदि विभावादि द्वारा चर्वणात्मक-श्रानन्दरूप रस-सम्भोग समझा जाय अर्थात् काव्यार्थ पाठक और श्रोता के चित्त में प्रविष्ट होकर रस-रूप में अनुभूत हो, यदि भावना का अर्थ इतना ही हो तो इसको स्वीकार किया जा सकता है। साधारणीकरण में इस कविता की-सी एक दूसरे की दशा हो जाती है। दो मुख थे पर एक मधुर ध्वनि, दो मन थे पर एक लगन । दो उर थे पर एक कामना, एक मगन तो अन्य मगन ॥-एक कवि १ भावकत्वं साधारणीकरणम् । तेन हि व्यापारेण विभावादयः स्थायी च साधारणीक्रियन्ते। साधारणी करणं चैतदेव यत् सीतादीनां कामिनीत्वादि सामान्योपस्थितिः स्थाय्यनुभावादी! सम्बन्धिविशेषानच्छिन्नत्वेन | -का० प्र० टीका २ "न च काव्यशब्दाना केवलानां भावकत्वम् भोगोऽषि काव्यशब्देन क्रियते" । व्यंशा- यामपि भावनायो कारणांशे चननमेव निपतति भोगकृतं रसस्य ध्यणनीयत्वे सिद्ध सिध्येत् | -वन्यालोकलोचन ३ संवेदनाख्यव्यंग्य (स्व) पसंवित्तिगोचरः । प्रास्वादनात्मानुभयो रसःकाव्यार्थ उच्यते । -अभिनवभाग
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