साधारणीकरण क्यों होता है भिन्न-भिन्न रूप से । इससे सिद्ध है कि सामाजिको को प्रकृति एक-सी नहीं होती। ऐसी-ऐसी घटनाओं से उन्हें अपनी-अपनी प्रकृति के अनुकूल आनन्द प्राप्त होता है । पर सवत्र ऐसा नहीं होता। बकिमचन्द्र के 'कपालकुण्डला' उपन्यास का वह अंश पढ़िये जहाँ कापालिक कपालकुण्डला को बलिदान की अवस्था में प्रस्तुत कर रखता है और अस्त्रान्वेषण को जाता है । हम इस प्रसंग को चाव से पढ़ते हैं। यहाँ कापालिक के प्रति हमारी घृणा नहीं होती; क्योकि वह अपनी सिद्धि के लिए अपना कर्तव्य करता है । कपाल- कुण्डला के प्रति उसका कोई रागद्वष या क्रोध-क्षोभ नहीं है । यहाँ निःसंकोच सबसे साधारणीकरण होने की बात कही जा सकती है। शाक्तों को ही क्यो, सभी सदस्यों को संवेदनात्मक रसानुभूति होगी। कपालकुण्डला के भाग जाने से हमें आनन्द होता है, यह बात दूसरी है। पर पहले भी उसके बलिदान से हमारा मन भागता नजर नहीं आता । सिनेमा में जंगली जातियों को नरबलि के कृत्यों को देखते हैं तो हम उनसे घृणा नही करते । हम जानते हैं कि यह उनका स्वभाव है और उन्हें जंगलो कहकर छोड़ देते है। ऐसे स्थानों में बालंबन और आश्रय के प्रति सामाजिकों को दो प्रकार की अनुभूतियां मानी जा सकती हैं और उनके विषय में अपनी गढ़ी हुई वृत्तयो से हमें रसानुभूति होती है, आनन्द मिलता है। यथार्थ बात तो यह है कि विभाव- आलंबन और आश्रय के सभी उचित भावों से साधारणीकरण होगा और संवेदनात्मक अनुभूति होगी। शुक्लजी स्वयं कहते हैं कि “यहां के आचार्यों ने श्रव्यकाव्य और दृश्यकाव्य' दोनों मे रस को प्रधानता रक्खी है। इसीसे दृश्यकाव्य में भी उनका लक्ष्य तादात्म्य और साधारणीकरण (हम एक ही मानते हैं ) को ओर रहता है। पर, योरप के. दृश्यकाव्य में शीलवैचित्र्य या अन्तः प्रकृतिवेचिश्य की ओर ही प्रधान लक्ष्य रहता है, जिसके साक्षात्कार से दर्शकों को आश्चर्य या कुतूहल मात्र की अनुभूति होती है।" अक्षरशः यह सत्य है। नाटक देखने से दर्शकों को काव्यानन्द प्राप्त हो, हमारे प्राचार्यों का यही लक्ष्य रहा। कुतूहल-मात्र की अनुभूति तो बाजीगरी आदि से भी हो सकती है। यदि नाटक का आश्चर्य या कुतूहल-मात्र ही उद्देश्य रहा, हृदय को गहरी अनुभूति नहीं हुई तो नाटक को काव्यसाहित्य का रूप देना ही व्यर्थ है। कौतुकात्मक अनुभूति क्षणिक और तात्कालिक होती है, ऊपर ही ऊपर की होती है; किन्तु संवेदनात्मक अनुभूति दीर्घकालिक होती है, गहरी होती है। जब तक विभावादि मन से दूर नहीं होते तब तक वह अनुभूति बनी रहती है और इसका प्राण साधारणीकरण ही है।
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