चालीसवीं छाया साधारणीकरण क्यों होता है ? एक लोकोक्ति है 'स्वगणे परमा प्रीतिः'-अपने गण में परम प्रीति होती है । -बालक से बालक का प्रेम होता है; जवान जवानों से जा मिलते हैं; वृद्धों के साथी वृद्ध । ऐसे ही कर्मकार कर्मकारों के साथ, गायक गायकों के साथ, विलासो विलासियों के साथ, चोर चोरो के साथ सम्बन्ध रखते हैं। इसका कारण यही है कि उनके विचार, कार्य, स्वभाव एक-से होते हैं । यद्यपि इसका संकुचित क्षेत्र है तथापि इसमें भी साधारणीकरण का बीज है। एक कहावत है, 'सौ सयाने एक मत'। अभिप्राय यह है कि समझदारों की समझ एक बिंदु पर पहुँचती है। हम जो कुछ पढ़ते हैं, सुनते हैं, उससे मन में जो भाव जगते हैं वे भाव दूसरे पढ़ने, देखने, सुननेवाला को भी जगते हैं। ग्रामसीमा के युद्ध मे गांव के गाँव एकमत हो, युद्ध के लिए निकल पड़ते हैं। कड़खा गाते हुए देशसेवकों को जाते देख दर्शकों के मन में भी स्वदेशप्रेम उमड़ पड़ता है। ऐसो सामुदायिक घटनाओं को हम इतिहास में पढ़ते है या ऐसे दृश्यो को रूपकों में देखते है तो हमारी एक ही दशा हो जाती है, जो साधारणीकरण का रूप दे देती है। मनुष्य सामाजिक जीव है। समाज में हो मनुष्य जनमता है, पलता है, बढ़ता है, विचरता है और उसके अनुकूल चलता है। उसकी प्रवृत्ति वैसी ही बनती है और उसके संस्कार भी वैसे ही बंधते है। 'भेड़ियों की मांद में पला लड़का' भी -उन्हीं-जैसा आचरण करता देखा गया है। अतः समाज जिसे अपनाता है, हम भी अपनाते हैं ; जिसे त्यागता है, त्यागते है ; जिसे आदर देता है, उसे श्रादर देते हैं जिससे घृण्ण करता है, धृणा करते हैं । और, वैसे हो हमारे कार्य होते हैं, जैसे कि उसके होते हैं। इसीसे हमारा साधारणीकरण होता है। इसमें सहानुभूति भी सहायक होती है। कहने का अभिप्राय यह कि हम जिस वातावरण में रहते हैं वह एक प्रकार का है। उसके अनुकूल ही भावाभिव्यक्ति होती है, होनी ही चाहिये । साधारणो- करण का यह एक मूलमन्त्र है। रंगमंच पर हम चुम्बन के भाव का अनुमोदन नहीं कर सकते; क्योंकि हमारे सामाजिक वातावरण में वह श्लाध्य नहीं है । ऐसे स्थानों में हमारा साधारणीकरण न होगा। रावण का सीता के प्रति या चंदू का रमेश की स्त्री के प्रति जो आचरण दिखाई पड़ता है उससे हमारा साधारणीकरण इसोसे नहीं होता कि ऐसी बातें हमारे सामाजिक वातावरण में अनुमोदित नही हैं, उचित महीं मानी जातीं।
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