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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२३

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नौ रसों से नये साहित्य की परख होती है और होती आ रही है। रस और भाव मनोवृत्तिमूलक है। मनोवृत्तियो या मनोवेगो की कोई सीमा निर्धारित नहीं हो सकती। फिर भी, उनके निरीक्षण और परीक्षण का ही परिणाम रसभाव का संख्या- निरुपण है । ये भाव स्थायी संचारी मे बॅटे हुए है। रसावस्था को प्राप्त करनेवाले भाव नौ ही क्यो, और भी हो सकते है; पर मुख्यता इनकी ही मानी गयी है। संचारियो की भी अनन्तता है; पर तैतीस संचारी प्रधान माने गये है। इनसे अधिक संचारियो की भी कल्पना की गयी है-दया, श्रद्धा, सन्तोष, स्वाधीनता, विद्रोह, त्याग, अभिमान, सेवा, सहिष्णुता, लोभ, निन्दा, ममता, कोमलता, दुष्टता, जिघासा, संतोष, प्रवंचना, दंभ, तृष्णा, कौतुक, प्रीति, द्वप, ममता आदि । श्राज एक नया भाव भी उत्पन्न हुआ है जिसे स्पष्ट रूप से नाम दिया गया है-'हिन्दू-मुस्लिम फीलिग । तैतीस तो इनकी न्यून संख्या है। अन्य भावो की कल्पना आचार्यों के मन मे थी और वे समझते थे कि इनमे ही अन्यो का अन्तर्भाव हो जा सकता है।' ___मनोभावो को मेड़ बाँधकर बहाने की तो कोई बात ही नहीं और न कोई ऐसा करने का आग्रह ही कर सकता है। रामायण और महाभारत मे तथा प्राचीन काव्यो और नाटको मे भावों की जो विविध व्यंजना है, वह आधुनिक साहित्य मे दुर्लभ है । तथापि, जीवन की जटिलताश्रो और अभिव्यक्ति की कुशल कलायो को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि स्थायी और संचारी के सीमित क्षेत्र से बाहर भी इनका संश्लेषण-विश्लेषण होना चाहिये । साहित्य भावो के उत्थान-पतन का हो तो खेल है; प्रतिभा-प्रसूत भावो का ही तो विलास है। इस दृष्टि से भी साहित्य को सदा समझने की चेष्टा होती रही है और उसकी सहृदयाह्लादकता कूती गयी है। हमे यह कहने मे हिचक नहीं कि नाना भंगियो से काव्य-साहित्य का विश्लेषण किया गया है और उसमे रस-सिद्धान्त की महत्ता मानी गयी है। काव्य के पढ़ने-परखने, सोचने-समझने और संश्लेषण-विश्लेषण के अनेक मार्ग हो सकते है; अनेक दृष्टि-भंगियाँ काम कर सकती है; अनेक सिद्धान्त बन सकते हैं और बने है। यदि ऐसी बात न होती तो शेक्सपीयर पर सैकड़ों पुस्तके नहीं लिखी जातीं। समालोचना-साहित्य की इतनी भरमार न होती। प्रसादजी और गुप्तजी पर नयो पुस्तकों का निकलना भी यही सिद्ध करता है। यदि सिद्धान्तो की विभिन्नता नहीं होती तो आज काव्यलक्षणों की विभिन्नता अपनी सीमा को पार न कर जाती-जितने मुँह उतने काव्यलक्षण न होते । हम तो कहेंगे कि रस-सिद्धान्त । सा चक्रव्यूह है, जिससे बाहर होना बडा कठिन है। रसात्मकता या रागात्मकता ही एक ऐसी वस्तु है, जो काव्य-साहित्य को इस नाम का अधिकारी बनाती है। १. अन्येपि यदि भावाः स्युः चित्तवृत्तिविशेषतः अन्तर्भावस्तु सर्वेषां द्रष्टव्यो व्यभिचारिषु।-भावप्रकाश