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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२३७

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१५० काव्यदपणा है । यही दर्पणकार कहते है कि परिमित, लौकिक और सांतराय अर्थात् विघ्न-सहित होने के कारण अनुकार्यनिष्ठरत्यादि का उद्वोध रस नही हो सकता।' ___जो कहते हैं कि काव्य में सरस प्रसंग है, इससे रस काव्यगत ही है, उन्हें यह सोचना चाहिये कि यह उक्ति काव्य पढ़नेवाले रसिक की है; यह उक्ति रसिक के अनुभव की है। इससे ऐसी उक्ति का अर्थ यही हो सकता है कि काव्य का प्रसंग बड़ा प्रभावशाली है। उनमें अभिभूत करने की शक्ति बड़ी प्रबल है । यही सिद्ध होता है । यह नहीं कि काव्यगत रस है। काव्यगत रस लौकिक है और रखिकगत रस अलौकिक । ___ आधुनिक काव्य-विवेचक कहते हैं कि काव्य में यदि रस नहीं रहता तो काव्यानन्द कैसे प्राप्त होता ? काव्य में जो वस्तु होगी वही तो प्राप्त होगी ! काव्य का आँवला रसिकों के हृदय में आम तो नहीं न हो जायगा? इससे रस काव्यगत ही है और लौकिक ही है। ____इन सब बातों का उत्तर यही है कि जो वस्तु मैं देखता हूँ और जैसी देखता हूँ, वह ठोक वैसी ही है, यह कहा नहीं जा सकता । जो मैं देखता हूँ वह अपनी हो दृष्टि से, उसमें दूसरे की दृष्टि नहीं। दूसरे की दृष्टि में वह मेरी-जैसी ही प्रतीत होगी, यह भी कहा नहीं जा सकता । उस वस्तु का जो वाह्य रूप है वह उसका असली रूप नहीं है । उसका एक प्रान्तर रूप भी है। मेरी पहुँच जहां तक हो सकतो, वहीं तक मै देख सकता हूँ। दूसरा मुझसे अधिक या कम भी देख सकता है । सभी का ज्ञान एक-सा नहीं होता और न सभी को एक वस्तु एक-सौ प्रतीत होती। कहा है कि जब पंडितों ने विचार करना शुरू किया तो किसी-किसी कक्ष में अज्ञान उनके सामने आ खड़ा हुआ। इस दार्शनिक विषय में इतने तर्क-वितर्क हैं कि उनका अन्त पांना कठिन है । फलितार्थ यह कि लोक में जिसका जो रूप रहता है, वइ काव्य में नहीं रहने पाता और काव्य का रूप पाठकों के हृदय में, पाठकों के अनुसार अपने रूप बना लेता है, जो उन्हीं का स्वनिर्मित होता है। इसीसे उन्हे आनन्द प्राप्त होता है । कवि यह नहीं देखता कि वह वस्तु कैसी है, बल्कि यह देखता है कि वह उसे कैसी भासित होती है । इस दृष्टि में उसको भावना काम करती है। वह हॉष्ट वस्तु के अन्तरंग में पैठ जाती है। दूसरों की दृष्टि और कवि की दृष्टि में यही अन्तर है। कवि जागतिक वस्तु को जब रंग-रूप दे देता है, तब वह वैसी नहीं रह जाती। र अनुकार्यस्य रस्यादेः उद्बोधो न रसो भवेत् ।-सा० दर्पण . २ विचारयितुमारब्धे पण्डितः सकलैरपि।। ज्ञान पुरतस्तेषां भाति कक्षासु कासुचित् ।'-पचदशी