पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२४९

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पैंतालीसवीं छाया रस-संख्या-विस्तार रस अानन्द-स्वरूप है । जब हम अानन्द-रूप में उसे पाते हैं तब उसके भेदों को आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । किन्तु, जब हम रसोत्पत्ति को विधाओं पर ध्यान देते हैं तब उसके भेदों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है और उनके मनमाने भेद करते हैं। १ बाहित्य के प्रथम आचार्य भरत मुनि ने प्रधानतः आठ रखों का हो उल्लेख किया है ।' नाट्यशास्त्र में शान्त रस का जो उल्लेख है, कहते हैं कि वह प्रक्षिप्त है । टीकाकार उद्भट ने वह अंश जोड़ दिया है। पहले-पहल उद्भट ने ही नाटक में शान्त-रख की अवतारणा की है। २ दण्डी ने माधुर्य गुण के लक्षण में रस का नाम लिया है तथा वाग्-रस और वस्तु-रख नामक उसके दो भेद किये हैं। शब्दालंकारों में अनुप्रास को वाग- रख का पोषक और अर्थालंकारों में भ्राम्यत्व दोष के अभाव को वस्तु-रस का पोषक माना है । पर स्वतन्त्र रूप से उन्होंने रसविवेचन नहीं किया है। ३ रुद्रट ने उक्त नव रखों में एक प्रेयान-रस जोड़कर' उसको संख्या दस कर दी है। इसमें स्नेह स्थायी भाव, साहचर्य आदि विभाव, नायिका के अश्र आदि अनुभाव होते हैं। इस प्रेयान्-रस का मूल कारण भामह और दण्डी के प्रेयस् अलंकार ही है, जिसमें प्रियतर आख्यान अर्थात् देवता, मान्य, प्रिय, पुत्र आदि के प्रति प्रीतिपुर्वक वचन कहा जाता है। ४ ने प्रेव के बाद दो अन्य रसों-उदात्त और उद्धत-की वृद्धि की। उन्होंने उदात्त का 'मति' और उद्धत का 'गव' स्थायी भाव स्थिर किये। उनके मत से धीरोदात्त और धीरोद्धत नायक इन दोनों रसों के नायक हैं। . ५ विश्वनाथ ने वत्सल नामक एक नये रस का उल्लेख किया, जिसका स्थायी भाव वात्सल्य है । इसके पुत्र आदि आलंबन और अंगस्पश श्रादि अनुभाव हैं। . ६ प्रेयस् अलंकार से ही भक्तिरस की उद्भावना की गयी । पर शान्त-रस में ही , १ अष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः।-नाट्यशास्त्र २ वीभत्सामुतशान्ताश्च नव नाट्ये रसाः स्मृताः।-का० सं० ३ मधुरं रसपदाचि वस्तुएयपि रसस्थितिः।-कान्यादर्श ४ 'स्नेहप्रकृतिः प्रेयान्' आदि काव्यालंकार के २५-१७, १८, १९ श्लोक । ५ प्रेयः प्रियतराख्यानम् ।-काव्यादर्श । ३ बीमत्सहास्यप्रेयांस शांतोदात्तोद्धता रसा: 1 स० क. स्फुटं चमत्कारितया वत्सलं च रसं विदुः।-सा० दर्पण