पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२५०

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रस संख्या विस्तार १६३ तब तक इसका अन्तर्भाव होता रहा जब तक रूपगोस्वामी तथा मधुसूदन सररवती ने उसका पक्ष समर्थन नहीं किया। भक्ति रस को इतनी प्रधानता दी गयी कि भक्ति में ही वौर आदि नव रस दिखला दिये गये। भक्ति को ही भागवत में भागवत रस माना गया है। ७ इसी प्रकार अभिनव गुप्त ने श्रार्द्रता-स्थायिक स्नेह रस और गन्धस्थायिक लौल्य रस की कल्पना को। ८ रसतरङ्गिणी में निवृत्तिमूलक शान्त रस जैसे माना गया है वैसे ही प्रवृत्ति- मूलक माया रस भी माना गया है। ६ उद्भट की दृष्टि में सभी भाव अनुभाव आदि से सूचित होने पर अर्थात् संचारी, स्थायो, साविक भाव, अनुभाव आदि से प्रेयस्वत् काव्य बन जाते हैं; अर्थात् सभी भाव रखरूप धारण कर सकते हैं। १० मधुसूदन सरस्वती तो यहां तक कहते हैं कि जितनी चित्तद् तियां- मनोविकार हैं सभी स्थायी भाव हैं, जो विभाव आदि के कारण रसत्व को प्राप्त हो जाते हैं। ११ इसी बात को मृद्रटकृत काव्यालंकार के टीकाकार के नमि साधु कहते हैं कि ऐसी कोई चित्तवृत्ति ही नहीं जो परिपुष्ट होने पर रसावस्था को प्राप्त न हो। १२ संगीतसुधाकर में ब्राह्म, संभोग और विप्रलंभ नामक तीन अन्य रसों का उल्लेख है और क्रमशः श्रानंद, रति और अरति इनके स्थायी भाव माने गये हैं। १३ मानसशास्त्र का भी एक प्रकार से यही सिद्धान्त है कि मानव-जीवन को पूर्णतः प्रकट करनेवाली जितनी प्रमुख उत्कट और आस्वादयोग्य भावनाएं हैं, सभी रस हो सकती हैं। ___इस प्रकार रस-संख्या के क्षेत्र में, क्रान्ति, अशान्ति, अराजकता का कारण भरत के स्थायी और संचारो भावों का गड़बड़घोटाला ही है। अर्थात् भरत निवेद, क्रोध आदि को गणना स्यायी और संचारी, दोनों में नहीं करते तो ऐसी धांधली नहीं मचती। १. निगमकल्पतरोगलितं फलं शुकमुखादमृसद्रवसंयुतम् । पिवत् भागवत रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ।।-भागवत २. रत्यादिकानां भावानामनुभावादिसूचनः। यत्काव्यं वध्यते सद्भिः तत्प्रेयस्वदुराहृतम् ।।-काव्यालंकार ३. यावत्यो द्र तयश्चित्त भावास्तावन्त एव हि । स्थायिनो रसतां यान्ति विभावादिसमाश्रयात् ।।-म० भ० रसायन ४. यदुत सा नास्ति कापि चित्तवृत्तिः या परिपोषं गता नरसीभवति ।-कव्यालंकार ४-५ की टीका