पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२५

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इस प्रकार संगीत और अलंकार आवश्यक तत्त्व नहीं है। रस काव्य का तत्त्व है। सरस कविता की मर्यादा ही सर्वोपरि है । इन तत्वो से रहित कविता भी कविता हो सकती है। प्राचार्यों ने ऐसा कहीं नहीं कहा है कि इनसे रहित रचना कविता नहीं हो सकती। जहाँ किसी काव्याग की प्रधानता हो, जहाँ स्वाभाविक उक्तियाँ हो, वहाँ भी कविता मानी जाती है । ऐमी रचनाएँ भी कविता की श्रेणी में आती है, जिनमे सूक्तियाँ होती हैं । __आपने रस को काव्य का तत्त्व न मानने के कारणों का जो निर्देश किया है, वह उपहासास्पद है। रस न तो डूबा है, न लुप्त है और न कही गडा है कि उसका उद्धार किया जाय और कोई उसके लिए चेष्टा करे। रस-परिपाटी यदि जीवित कविता का बाधक होती तो आज भी इतनी रसवतो रचनाएँ नहीं होती। कट्टर प्रगतिवादी भी ऐसी रचना करते है। रस ही रचना को यथार्थ कविता बनाता है; क्योकि अानन्द-दान ही उसका प्रधान उद्देश्य है। भावहीन रचना भायुको को क्या, साधारण पाठको को भी नहीं रमा सकती। शुष्क विवरण कविता कहलाने का हकदार नहीं है । हृदयाकर्षण की शक्ति जिस रचना मे नही, वह रचना यदि कविता है तो सच्ची कविता झख मारने के सिवा और क्या कर सकती है ? रस-परिपाटी राजाश्रित कवियो की वनवायी हुई नही। वह दो हजार बरस से ऊपर की है-भरत के पहले से चली आती है। आदिकवि वाल्मीकि के अादिकाव्य रामायण मे जिसको रस प्रतीत नहीं होता, उसे क्या कहा जाय, समझ में नहीं आता। उन्होने वडी धृष्टता से उपयुक्त ये वाक्य कह डाले है-'वह आदिकवि के काव्य में नहीं मिलती, और न ही बाद को मिलती ।' रघुवंश, शकुन्तला, उत्तररामचरित आदि तो चूल्हे-भाड को गये, जो रामायण रसो की खान है, उसमे भी रस नहीं है । रस-परिपाटी को समालोचक ने समझ क्या रखा है-नायिका-भेद या अलंकार ! ये रस-परिपाटी या रस-परम्परा या रस-सिद्धान्त या रस-वाद के नाम से अभिहित नहीं होते। ____ रस ही काव्य की आत्मा है। इसमे मीन-मेष नहीं। जो रसात्मक काव्य है, वे उत्तमोत्तम काव्य है। जिनमे वाच्य की अथवा अलंकार की प्रधानता है, वे द्वितीय तथा तृतीय श्रेणी के काव्य समझे जाते है ; क्योकि सहृदयो के आनन्द- दान की विशेषता तथा न्यूनता ही इसका मूल है। काव्य मे व्यंजना की प्रधानता को आधुनिक आचार्य भी मानते है। व्यंजनायो मे रस-व्यंजना ही प्रधान है और वह ध्वनि-काव्य होता है। अलंकार-ध्वनि और वस्तु-ध्वनि रस की अपेक्षा निम्न श्रेणी के व्यंग-काव्य है। कविता शाश्वत उस अंश तक है जहाँ तक उसका सत्य से सम्बन्ध है। सत्य अशाश्वत नहीं होता। सत्य का प्रतिपादन कविता का एक महान् उद्देश्य है ।