रसों का मुख्य-गौण-भाव हो निश्चित, समर्थ और नित्य है। और आत्मानंद ही सब कुछ है। ____इस प्रकार एकीकरण में अनुभव, आग्रह और मतिविशेष का प्रभाव हो विशेषतः दृष्टिगोचर होता है। किन्तु इससे कला-विकास का क्षेत्र अंकुचित हो जाता है। सैंतालिसवीं छाया रसों का मुख्य-गौणा-भाव भरत ने चार रसों को मुख्यता दी है। वे हैं-शृङ्गार, बीर, रौद्र तथा वीभत्स । इन चारों से ही हास्य, करुण, अद्भुत तथा भयानक रसों की उत्पत्ति भी बतायी है । इससे प्रथम चारों की प्रधानता सिद्ध होती है। भरत के श्लोको में जो रस और स्थायी भावों का क्रम दिया हुआ है वह एक-दूसरे से मिलता-जुलता है। जैसे, शृङ्गार-हास, करुण-रौद्र, वीर- भयानक, वीभत्स-अद्भुत तथा रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा और विस्मय । पर उक्त उत्पत्ति क्रम इसका मेल नहीं खाता। भरत ने वीभत्स को प्रधानता दी है पर विचारों को दृष्टि मे उसकी गौणता है। कारण यह है कि वह यथास्थान हल्की घृणा पैदा करके शान्त हो जाता है । इसका साधन पोव, हड्डी, मांस आदि वृत्तिसंकोचक जुगुप्सित वस्तुएं हैं। समाज मैं घृणित कर्म करनेवाले भनुष्यों की श्रोर दृष्टिपात करते हैं तब वीभत्स को व्यापकता लक्षित होती है। पर वह उत्कटता उसमें नहीं पायी जाती जो दिये हुए उदाहरणों में है, भले ही उसमें स्थायित्व और प्रास्वाद्यस्व को अधिकता हो। हास्य भी छिछला समझा जाता है ; पर शिष्ट तथा गंभीर हास्य भी होता है जिसकी आस्वाद्यता अत्यधिक होती है। इसका तो गौण स्थान है हो । अभिनव गुप्त रसों के स्थान निर्देश के सम्बन्ध में यो उल्लेख करते हैं-भरत के शृङ्गार को प्रथम स्थान देने का कारण यही है कि वह सकल जाति-सामान्य है, अत्यन्त परिचित है और उसके प्रति सभी का आकर्षण है । प्रायः सभी प्राचार्यों ने १ आत्मनोऽन्यत्र या तु स्यात् रसबुर्द्धिन सा ऋता । आत्मनः खलु कामाय सर्वमन्यत् प्रियं भवेत् । सत्यो ध्रुवो विमुनित्यो एक प्रात्मरसः स्मृतः।-पुरुषार्थ प्रात्मरतिरात्मकोड़ आत्ममिथुन आत्मानन्दः स स्वराड् भवति ।-छान्दोग्य २ शृङ्गारादि भवेद्धास्य रौद्राच्च करुणो रसः। वीसच्चैवा तौल्पत्तिः बीमत्साच्च भयानकः ||-नाट्यशास्त्र ३ नाव्यशाख ६-१६, २०
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