पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२५३

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१६६ काव्यदर्पण भारतेन्दु का कथन है- जिहि लहि फिर कछु लहन की आस न चित्त में होय । जयति जगत पावन करन प्रेम बरन यह दोय। , डर सदा चाहे न कछु सहै सबै जो होय।। रहै एक रस चाहिक प्रेम बखाने सोय ॥ एक अँगरेज का कथन है- God is love, love is God-प्रेम ही ईश्वर है और ईश्वर ही प्रेम है। शृङ्गारिक प्रेम को अनुराग, स्वजन-परिजन के प्रेम को सौहाद, बड़ों के प्रति छटों के प्रेम को भक्ति, छोटो के प्रति बड़ों के प्रेम को वात्सल्य और विकल होकर जो प्रेम किया जाता है उसे कापण्य कहते हैं। इस प्रकार प्रेम पांच प्रकार होता है। करुण हो एक रस है महाकवि भवभूति कहते है कि करुण हो एक रस है, जो निमित्त-भेद से अन्यान्य रसों के रूप ग्रहण करता है- कारुणिक कवि पन्त कहते है- वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान । उमड़ कर आँखों से चुपचाप वही होगी कविता अनजान । एक अँगरेज कवि को उक्ति है- Our sweetest songs are those _that tell of saddest thought. अर्थात् हमारे मधुरतम संगीत वे ही हैं, जिनमें प्राह उपजानेवाले भाव भरे अद्भत ही एक रस है चित्त-विस्तार-रूप जो चमत्कार ( विस्मय ) है वही रस का सार है। उसका सर्वत्र अनुभव होता है। उस सार चमत्कार में अद्भुत रस हो वर्तमान रहता है। इससे अद्भुत हो एक रस है। आत्मरस ही एक रस है आत्मा से विभिन्न पदार्थों में जो रणधुद्धि होती है वह मिथ्या है, सच्ची नहीं; क्योंकि आत्मा ही के लिए तो सब वस्तुएँ प्रिय होती हैं। इससे एक आत्मरस १ को रंस करूण एव निमित्तमेदात् भिन्मः पृथक् पृथगियाश्रयते विवान् । उ० रा० चरित १ रसे सारः चमत्कारः सर्वत्राप्यनुभूयते । तच्चमकारसारत्वे तत्राप्यतो रसः । तस्माद तमेवाह कृती नारायणः स्वयम् |-साहित्यदर्पण