१७२ काव्यदर्पण जैसे, रजोगुण में वास्सल्य रस, तमोगुण में माया रस और सतोगुण में भक्ति रस आदि। पाश्चात्य विचारकों ने रसों के मुख्यतः दो प्रधान भेद माने है । इसका आधार उनका वर्णन है। वे हैं विशाल और सुन्दर । अँगरेजी में विशाल के लिए ( sublime) शब्द है। पर इसके लिए उपयुक्त शब्द है उदात्त । भावना का उदात्ती-भवन ( sublimation ) और सौन्दर्यसृष्टि रस के पोषक हैं। निसर्ग की उदात्त गंभीरता और असामान्यविभूति के विशाल मनोधर्म के अनुभव से ही उदात्त की भावना जगती है । भोज ने और चिपलूणकर शास्त्री ने उदात्त रस को माना है; पर इसकी कोई विसात नही । विशालता से अभिप्राय है महानता का। यह विशालता श्राकार की हो नहीं, गुण की भी होती है । इसमें सौन्दयं न हो, सो बात नहीं। सौन्दर्य रहता है, पर विशालता से लिपटा हुआ । जब हम पढ़ते हैं- मेरे नगपति, मेरे विशाल ! साकार दिव्य गौरव विराट, पौरुष के पुजीभूत ज्वाल मेरी जननी के हिमकिरीट, मेरे भारत के भव्य भाल ।-दिनकर तब नगपति को विशालता के साथ उसके सौन्दर्य का भी अनुभव करते हैं। यह कहना गलत है कि विशालता में भयानकता मिलो हुई होती है। विशालकाय पर्वत, महासमुद्र, अरण्यानो, अनन्त आकाश, विस्तृत घाटो, महामरुभूमि, महा- प्रपात आदि देखकर हम कहाँ भयभीत होते हैं, आश्चर्यान्वित अवश्य होते हैं। इनके सम्बन्ध के कार्य भले ही भयानक हों। जैसे, पर्वत पर चढ़ना, समुद्र में कूदना, जंगल में भटकना आदि। इन्हें देखकर परमेश्वर की परम प्रभुता का ध्यान हो आता है, जिससे शान्ति मिलती है। जब हम निम्नलिखित पद्य पढ़ते हैं तब महानता का ही अनुभव करते हैं। सहयोग सिखा शासित जन को शासन का दुर्वह हरा भार । होकर निरस्त्र सत्याग्रह से, रोका मिथ्या का बल प्रहार ॥-पंत साहित्य में सौन्दर्य का महत्वपूर्ण स्थान है। इस सौन्दर्य को शृङ्गार में ही सीमित कर देना उसका महत्त्व नष्ट कर देना है। सहृदयता सौन्दयं सृष्टि करती है। सौन्दयं आकर्षण पैदा करता है और उसमें आनन्द देने की शक्ति है । 'सौन्दर्य सान्त में अनन्त का दर्शन है।' काव्य में सौन्दयं की हो महिमा अमिट होकर रहती है।
पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२५८
दिखावट