काव्यदर्पण प्रेम के हेम हिंडोरन में सरस बरसै रस रग अगाधा। राधिका के हिय झूलत सॉवरो साँवरे के हिय झूलति राधा ॥ यहाँ राधा का प्रेम विषयासक्तिमूलक नहीं कहा जा सकता। २ निकृष्ट रूप- प्रेम करना है पापाचार प्रेम करना है पापविचार । जगत के दो दिन के ओ अतिथि, प्रेम करना है पापाचार । प्रेम के अन्तराल में छिपी, वासना की है भीषण ज्वाल । इसीमें जलते हैं दिन रात, प्रेम के बंदी बन विकराल । प्रेम में इच्छा की है जीत, और जीवन की भीषण हार । न करना प्रेम, न करना प्रेम, प्रेम करना है पापाचार । -रा० कु० वर्मा जहाँ श्राखक्ति की प्रबलता हो वहाँ का शृङ्गार निकृष्ट हो जाता है। उपदेश रूप में प्रेम का निकृष्ट रूप ही प्रकट किया है। अलौकिक शृङ्गार का प्राचीन रूप कबीर की कविता में मिलता है- आई गवनवां की सारी उमरि अबहीं मोरि बारी। साज समाज पिया लै आये और कहरिया चारी । बम्हना बेदरदी अँचरा पकरि के जोरत गठिया हमारी। सखी सब गावत गारी ॥ कबीरदास मृत्यु से मिलने को प्रियतम से मिलना बताते हैं और उसे गौना का रूप देते हैं । आध्यात्मिक शृङ्गार भी इसे कह सकते है । अलौकिक शृङ्गार का नवीन रूप यह है- ___ कैसे कहते हो सपना है अलि, उस मूक मिलन की बात । भरे हुए अब तक फूलों में मेरे आंसू उनके हास।।-महादेवी भरत ने शृङ्गार से हास्य की उत्पत्ति मानी है। हास्य ही क्यों ? शृङ्गार की प्रेरणा से करुणा, क्रोध, भय, घृणा, आश्चर्यं श्रादि की उत्पत्ति भी मानी जाती है । किसी भी महाकाव्य में इसका प्रमाण मिल सकता है। भोजराज कहते है कि रति आदि उनचासों भाव शृङ्गार को घेरकर उसे ऐसे समृद्ध करते हैं जैसे किरणें सूर्य को दीति को उद्दीपित करती हैं। उनके कहने का भाव यही है कि रति शृङ्गार । ही हास्य, वीर आदि का भी मूल भाव है। देव ने सभी रखों का वर्णन शृङ्गार के अन्तर्गत करके दिखला दिया है। १ रत्यादयोऽर्धशतमेकविवर्जिता हि भावाः पृथग्विविधभावमुयो भवन्ति । ... कारतत्वमभितः परिवारयन्तःसताविषं तिचया इव वयन्ति । अ० प्र०
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