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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२९२

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२०६ काव्यदर्पण काव्य के देखने-सुनने में कोई प्रवृत्त क्यों होता' ? कुछ और बातें भी इसमें विचारणीय है। ___एक तो हमारे यहाँ वियोगान्त वा दुःखान्त काव्य, नाटक आदि लिखने का ही निषेध है और युद्ध, बध अनेक बातों का रंगमंच पर दिखलाना भी निषेध है। प्रो. विचेष्टर भी निष्ठुरतापूर्वक हत्या आदि प्रदर्शन के विरुद्ध हैं। इसीसे हमारे यहाँ प्रायः सुखान्त नाटकों की ही भरमार है। अब जो दुःखान्त नाटक और एकांकी भी लिखे जाने लगे हैं वह पाश्चात्य साहित्य का प्रभाव है। यत्र-तत्र प्राच्य साहित्य में जो करुण रस दीख पड़ता है वह रस-विशेष की परिपुष्टि के लिए हो; जैसे, बिना विप्रलंभ के-वियोग के श्रृंगार का परिपोष होता ही नहीं।' 'उत्तररामचरित' श्रादि एक-दो नाटक-काव्य इसके अपवाद हैं। करुण बड़ा कोमल रस है। यह सहानुभूति के साथ सहृदयता को भी उत्पन्न करता है। इसके आंसू अमल, शुद्ध तथा दिव्य होते है। आँसू हृदव को मलीनता को दूर कर देते हैं। दुःख से हमारी आत्मा शुद्ध और परिष्कृत हो जाती है । दुःख हो कर्तव्य का स्मरण दिलाता है। दुःख से ही महान् व्यक्तियों के धैर्य की परीक्षा होती है। अब हम हरिश्चन्द्र, महात्मा गांधी-जैसे महान् पुरुषों की कष्ट-कथा सुनते हैं तब हमारे मन में उनके प्रति गौरव के भाव जागते हैं। हम भी अपने मन में ऐसा अनुभव करने लगते हैं कि कितना ही कष्ट क्यों न झेलना पड़े, कर्तव्यविमुख न होना चाहिये। काव्य-नाटक के आदर्श चरित्रों से, बो दुःख में ही निखरते हैं, हमें दुःख नहीं होता, बल्कि हमारा हृदय उत्साह और गौरव से भर जाता है और ऐसों के सामने हम नतमस्तक हो जाते हैं। सुखान्त नाटक की अपेक्षा, जिसमें दुःख की व्याख्या हो जाने से मन को आशान्ति दूर हो जाती है, दुःखान्त नाटक का प्रभाव क्षणिक नही होता। हमारा दिल देर तक कचोता रहता है। ___ पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने इसपर बहुत विचार किया है और उनके भिन्न-भिन्न मत हैं। शोकान्त काव्य-नाटक के पढ़ने, सुनने और देखने से आनन्द होने के ये कारण हैं-(१) मन में यह कल्पना होती है कि संसार असार है, जीवन क्षणभंगुर है, इसका साक्षात्कार होता है। (२) शौर्य, औदार्य आदि गुण प्रकट करनेवाले नायक को मृत्यु से उसके प्रति आदर बढ़ता है। (३) सद्गुणों का उत्तेजन और दुगुणों का प्रशमन देखा जाता है । (४) दूसरों के दुःख होने की कल्पना होती है। (५)शोकान्त नाटकों की घटनाओं से सामाजिकों को कल्पना-शक्ति का संचालन होता है १ करुणादावपि रसे जायते वत्परं सुखम् । सचेतामनुभयः प्रमाणं तत्र केवलम् किंच तेषु

- बदा दुखं न कोऽपि स्वादुन्मुखः । सा दर्पण

२दूरावानं यो युद्ध रावदेशादिविष्कः । सा० दर्पण ३ न विना विपकम्मेन बार पुटिमरडवे । सा दर्पण' .