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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२९३

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करुण-रस-सामग्री २०७ (6) रचनाकार के रचनाकौशल का चमत्कार-दर्शन देखने को मिलता है। (७) दुःख में गुणगण को अधिक विकसित देखा जाता है। (८) नये ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा होती है। (६) दुःखो को देखकर दया के भाव जगने से प्रत्यक्ष सहायता के भाव जगते हैं, इत्यादि । ये सब 'सचेतसामनुभव' ही तो है। ___एक-दो प्राचार्य रसों से सुख-हो-सुख होता है, इसके विरुद्ध हैं। दुःखात्मक रस से दुःख ही होता है, सुख नहीं, ऐसा मानते हैं। उनके मत से करुण, रौद्र, वीभत्स और भयानक दुःखात्मक रस हैं और शेष सुखात्मक । वे कहते हैं कि विभाव, अनुभाव प्रादि से स्पष्ट सुख-दुःख का निश्चय होता है। करुण रस के पांच भेद किये गये हैं। जैसे- करुण अतिकरण औ महाकरुन लघुकरुन हेतु। एक कहत है पाँच यों दुख में सुहिं सचेतु । अर्थात् करुण, अतिकरुण, महाकरुण, लघुकरुण और सुखकरुण ये पांच भेद करुण के होते हैं। इन्हें भेद मानना ठीक नहीं। यह करुण की मात्रा के ही भेद कहे जा सकते हैं । सुखकरुण का एक उदाहरण लें- बहू, बहू, बैदेहि बड़े दुख पाये तुमने मा मेरे सुख आज हुए हैं दूने बूने ॥-गुप्त यहाँ सुख में भी दुःख को स्मृति करुणा का उद्रेक करती है । महाकरुण के हो लिए भवभूति ने लिखा है-पत्थर भी रो पड़ता है और वज्र का हृदय भी फट नाता है-अपि पावा रोदित्यपि दलित वज्रस्य हृदयम् । करुण को यही महिमा है । पन्द्रहवीं छाया करुण-रस-सामग्री इष्ट वस्तु की हानि, अनिष्ट वस्तु का लाभ, प्रेमपात्र का चिरवियोग, अर्थ-हानि आदि से जहाँ शोक-भाव की परिपुष्टि होती है वहाँ करुण रस होता है। श्रालंबन विभाव-बन्धुविनाश, प्रिववियोग, पराभव आदि । उद्दीपन विभाव-प्रिय वस्तु के प्रेम, बश या गुण का स्मरण, वस्त्र, आभूषण, चित्र आदि का दर्शन आदि । १ स्थायिभावाभिवोत्कर्षः विभावयभिचारिभिः । स्वानुभवननिश्चेव सुखदुःखाल्मको रसः । नाव्यदर्पण