पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३

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आत्म-निवेदन
(प्रथम संस्करण)

परिवर्द्ध नशील हिन्दी-साहित्य में इतना उपकरण प्रस्तुत हो गया है कि उसका शास्त्र नया कलेवर धारण कर सकता है; किन्तु किसी भी अवस्था में प्राचीनों की अक्षय सम्पत्ति से मुख मोड़ना श्रेयस्कर नही है। डाक्टर सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त अपने 'काव्य-विचार' को प्रस्तावना में लिखते है कि "भरत से लेकर विश्वनाथ या जगन्नाथ पर्यन्त हमारे देश के अलंकार-ग्रन्थों में जैसी आलोचना साहित्य-विषयक दीख पड़ती है वैसी ही आलोचना दूसरी किसी भाषा में आज तक हुई है, यह मुझे ज्ञात नहीं।"

हमारे हिन्दी-साहित्य पर प्राचीन संस्कृत का परम्परागत प्रभाव तो प्रत्यक्ष है ही, साथ ही आधुनिक शिक्षा-दीक्षा के कारण उसपर पाश्चात्य साहित्य का भी पर्याप्त प्रभाव पड़ चुका है। अतः प्राच्य और पाश्चात्य साहित्य-शास्त्र की विवेचना को सम्मिलित रूप से अपनाकर, दोना दृष्टिकोणों से देखकर ही कविता का स्वाद लेना होगा। सौन्दर्य का साक्षात्कार करके उसके आनन्द का उपभोग करना होगा। साहित्य सम्यक रूप से हृदयंगम करने के लिए वर्तमान हिन्दी-साहित्य की सूक्ष्म समीक्षा करके नये काव्यशास्त्र या अलंकारशास्त्र (Poetics) का निर्माण होना चाहिये; तुलनात्मक दृष्टि से काव्यशास्त्र का नया प्रतिसंस्कार होना आवश्यक है।

इसी दृष्टिकोण को लक्ष्य में रख करके पाँच खण्डों में 'काव्यालोक' का प्रकाशन आरम्भ किया गया था। उनमें से अर्थ-विचार का एक खण्ड (द्वितीय उद्योत) प्रकाशित हो चुका है। प्रथम उद्योत छप चुका है। अन्य उद्योत भी प्रायः प्रस्तुत हैं; पर कई कारणों से छपने में विलम्ब प्रतीत होता है। इधर रोगाक्रान्त शरीर जर्जर हो गया है। आँखों को ज्योति भी बिदा माँगने लगी है। अतः मन में विचार आया कि 'काव्यप्रकाश', 'साहित्य-दर्पण' जैसा पांचों उद्योतों का सारांश लेकर एक ग्रन्थ प्रस्तुत किया जाय, जिसमें काव्यशास्त्र की सारी बातें नवीन विचारों और नवीन उदाहरणों के साथ आ जायँ। उसी विचार का परिणाम यह 'काव्यदर्पण' है।

काव्यालोक (द्वितीय उद्योत) की समीक्षा में समीक्षक मित्रों ने कई प्रकार की बाते कही थीं जिनका सार-मर्म यह है—'इसमें पडिताऊपन अधिक है। इलियट आदि की पुस्तकें देखने पर इस पुस्तक का दूसरा ही रूप होता'। 'नवीन विचारो के प्रति ग्रन्यकार अनुदार है' इत्यादि। भाव यह कि या तो मैं 'अँगरेजीपन' अधिक लाता या 'मूर्खतापन' अधिक दिखलाता। दूसरा, तीसरा, आदि इसके अनेक रूप