पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३११

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२२६ काव्यदर्पण उद्दीपन विभाव-परमेश्वर के अद्भुत कार्य, अनुपम गुणावली, भक्तों का सत्संग आदि। संचारी भाव-श्रौत्सुक्य, हर्ष, गर्व, निर्वेद, मति श्रादि । अनुभाव-नेत्र-विकास, रोमांच, गद्गद वचन आदि । स्थायी भाव-ईश्वरानुराग। तुम करतार जग रच्छा के करनहार पूरन मनोरथ हो सब चित चाहे के। यह जिय जानि 'सेनापति' हू सरन आयो हजिये दयाल ताप मेटो दुख दाहे के। जौ यों कहौ, तेरे हैं रे करम अनैसे हम गाहक है सुकृति भक्तिरस लाहे के। आपने करम करि उतरौगौ पार तौ पै, हम करतार तुम काहे के ॥ काव्यगत रस-सामग्री-इसमें भगवान भक्त के श्रालंबन विभाव हैं और उद्दीपन हैं जगत् की रक्षा करने, मनोरथ पूरा करने के भगवान के गुण । शरण में जाना, प्रार्थना करना, गद्गद् वचन आदि अनुभाव है और संचारी हैं हर्ष, मति, वितर्क, निर्वेद आदि । इनसे परिपुष्ट ईश्वरप्रेम द्वारा भक्ति-रस की व्यञ्जना है। रसिकगत रस-सामग्री-ईश्वरानुरक्त भक्त श्रालंबन ईश्वरस्मरण से भक्त पर होनेवाले भाव उद्दीपन है। रोमांच, अश्रुपात, विह्वलता आदि अनुभाव हैं। औत्सुक्य, हर्ष, आत्महीनता को भावना- ग्लानि श्रादि संचारी और ईश्वरानुराग स्थायी भाव हैं। मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई । जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई॥ साधुन संग बैठि-बैठि लोक लाज खोई। अब तो बात फैल गयो जाने सब कोई ॥ अँसुअन जल सींचि-सोंचि प्रेम-बेलि बोई । 'मीरा' को लगन लगो होनी हो सो होई॥ . इसमें गिरिधर गोपाल श्रालंबन, साधुसंग उद्दीपन, प्रेमबेलि बोना अनुभाव और हर्षे, शंका आदि संचारी है। इससे मीरा को अनन्य भक्ति व्यजित है। क्या पूजा क्या अर्चन है। उस असीम का सुन्दर मन्दिर मेरा लघुतम जीवन रे। मेरी श्वासें करती रहतों नित प्रिय का अभिनन्दन रे। पवरण को धोने उमड़े आते लोचन में जलकन रे। .