पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३१३

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पच्चीसवीं छाया वत्सल-रस प्राचीन आचार्यों ने वत्सल रस को रस की श्रेणी में स्थान नहीं दिया है। कारण यह कि देवादिविषयक रति को भावों में गणना की गयी है। सोमेश्वर की सम्मति है कि स्नेह, भक्ति, वात्सल्य, रति के हो विषेरा रूप हैं। तुल्य लोगों की परस्पर रति का नाम स्नेह, उत्तम में अनुत्तन को रति का नाम भक्ति और अनुत्तम में उत्तम को रति का नाम वात्सल्य है। प्रास्वाद्य की दृष्टि से ये सब भाव ही कहलाते हैं। इसमें वात्सल्य का जो रूप है वह ठीक नहीं। छोटों में बड़ों को रति वात्सल्य होता है। अनेक प्राचार्यों ने वस्सल-रस को माना है और रसों में इसकी गणना की है। प्रथम प्रथम रुद्रट ने जो दसवे प्रेयस रच का जो सूत्रगत किया, यह वत्सल-रस का ही रूप है। भोज ने जो रस-गणना की है उसमे वात्सल्य का नाम भी श्राया है। हरिपालदेव ने वत्सल-रस को माना है। दर्पणकार ने तो इस रस की पूर्ण व्यारया की है। केवल स्पष्टतः चमत्कारक होने से ही नहीं, वात्सल्य भावना को उस्कटता, स्ववंश-रक्षण की समर्थता तथा श्रास्वाद की योग्यता के कारण वात्सल्य भाव को रस न मानना दुराग्रह के अतिरिक्त क्या कहा जा सकता है । वात्सल्य माता-पिता में अधिक रहता है। माता में इसकी अत्यधिक मात्रा दीख पड़ती है। कारण यह कि शिशु के गर्भस्थ होने के साथ-साथ माता के मन में वात्सल्य का प्रारम्भ हो जाता है और कुछ समय के बाद दुग्ध के रूप में शरीर में भी फूट पड़ता है। माता का वात्सल्य एक ऐसा स्थिर भाव है कि गर्भस्थ शिशु के साथ-साथ उसकी में वृद्धि होती है । वात्सल्य में सौंदर्य-भावना, कोमलता, आशा, शृङ्गार-भावना, आत्माभिमान आदि अनेक भाव रहते हैं, जिनके संमिश्रण से वात्सल्य अत्यत प्रबल हो उठता है । वत्सल्य-रस का स्थायी भाव स्नेह है । रुद्रट ने इसे स्नेह-प्रकृति कहा है । जिस रस का स्थायो स्नेह हो, उसको प्रेयस कहते हैं। इसी का नाम वात्सल्य है । किसीने १ स्ने भक्तिवात्सल्यमितिरतेरेव विशेषः । तेन तुल्ययोरन्योन्यं रतिः स्नेहः अनुत्तम. रयोत्तमे रतिर्भक्तिः उत्तमस्यानुत्तमे रतिर्वात्सल्यम् । इत्येवमादौ भावस्यैवारवाद्यत्वम् । १ स्नेहप्रकृति प्रेयान् -काव्यालकार २२. शृङ्गारवीरकरुणादभुतरौद्रहास्थवीभत्सवत्सलभयानकशान्तनाम्नः । ३ शान्ती ब्रह्मानिधः पश्चात् वात्सल्याख्यरततःपरम् । -सं० सु० ४ स्फुटं चमत्कारितया बरसलं च रसं विदुः।-साहित्यदर्पण