पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३१४

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पारसल्प-रस-सामग्री २२६ करुणा' को और किसीने ममता को इसका स्थायी माना है । दर्पणकार ने वत्सलता स्नेह को-वात्सल्यपूर्ण स्नेह को इसका स्थायी माना है, जो बहुसम्मन है । करुणा और ममता दोनों इसमें पैठ जाती हैं। वात्सल्य में करुणा और ममता को अधिक मात्रा होना ही इनके स्थायी भाव मानने का कारण है । एक उदाहरण- पूजे कई देवता हमने तब है इसको पाया। प्राण समान पालकर इसको इतना बड़ा बनाया । आत्मा ही यह आज हमारी हमसे बिछड़ रही है। समझाती हूँ जी को तो भी धरता धीर नहीं है । का०प्र० गुरु इस वर्णित 'बेटी की विदा' में वात्सल्य उमड़ा पड़ता है, जिसे करुणा और ममता ने बहा दिया है। ये वात्सल्य को दबा न सकी हैं। इसके बालंबन विभाव हैं बान क-बालिका । बालक परमात्मा का परमप्रिय होता है। ईसा ने भी खुद ऐसा ही कहा है। बालक जितना ही भोलाभाला होता है उतना ही प्यारा । एक उत्फुल्ल बालक को देखकर मन प्रसन्न हो जाता है ; उसकी तुतली बोली सुनकर हृदय गद्गद हो जाता है और उसके कमल-कोमल मुखड़े पर को हँसी से तो अन्तःकरण में आनन्द के फव्वारे छूटने लगते हैं। वात्सल्य में कहीं प्रेम व्यक्त रहता है, कही कारुण्य, और कहीं अतृप्त आकांक्षा । कहीं वीररस की, कहीं शृङ्गाररस को, और कहीं हास्यरत की छया दीख पड़ती है। एक उदाहरण ले- आरसी देखि जसोमति जू सों कहै तुतरात यों बात कन्हैया । बैठे ते बैठे उठे ते उठे और कूदे ते कूदै चले ते चलया। बोले ते बोलै हँसे ते हँसै मुख जैसे करो त्यौही आपु करैया। दूसरो को तो दुलारी कियो यह को है जो मोहि खिझावत मैया ॥ इस वात्सल्य में हास्य का भी पुट है जो उसे और पुष्ट करता है। पुत्र-विषयक वात्सल्य प्रवल होता है या पुत्री-विषयक, इस प्रश्न का समाधान कठिन है। इसमें संदेह नहीं कि पुत्र-वात्सल्य का साहित्य व्यापक और विस्तृत है; तथापि पुत्री के वात्सल्य में न्यूनता हो, यह बात नहीं है। सुभद्राकुमारी चौहान 'उसका रोना' शीर्षक में कहती हैं- तुमको सुनकर चिढ़ आती है मुझको होता है अभिमान, जैसे भक्तों की पुकार सुन गवित होते हैं भगवान ।। १ अन्ये तु करुणा स्थायी वात्सल्यं दशमोऽपिच । - मंदरामरंदचंपू २ अत्र ममकार स्थायी । ---कवि कर्णपूर