पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३१९

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कायदपया हास्य का रसाभास करहिं कूट नारदहिं सुनाई, नीक दीन्ह हरि सुन्दरताई। रीझिहिं राजकुअरि छवि देखी, इनहि बरिहि हरि जानि बिसेखी नारद-मोह के प्रसंग में शंकर के दो गण नारदजी के स्वरूप को देखकर उनकी हसी उड़ाते थे । उसी समय को ये पंक्तियाँ हैं । यहाँ हर-गणों के हास्य का आलंबन नारद-जैसे देवर्षि हैं । अतः, यहाँ हास्य का अनुचित रूप में परिपाक हुआ है। करुणा का रसाभास मेटती तृषा को कंठ लगि लगि सींचि सीचि ___ जीवन के संचिबे में रही पूरी सूमड़ी। हाथ से न छूटी कबौं जब ते लगाई साथ हाय हाय फूटी मेरी प्रानप्रिय तूमड़ी ॥-हिंदी-प्रेमी तूमड़ी श्रालंबन, उसका गुण-कथन उद्दीपन, हाथ पटकना, सिर धुनना अनु- भाव और विषाद, चिन्ता आदि संचारी है। इनसे परिपुष्ट शोक स्थायी से करुण- रस व्यजित है ; पर अपदार्थ, तुच्छ तूमड़ी के लिए इतनी हाय-हाय करने से करुण का रसाभास है। दूसरी छाया भाव प्रधानता से प्रतीयमान निर्वेदादि संचारी, देवता-आदि-विषयक रति और विभावादि के अभाव से उबुद्ध-मात्र-रति आदि स्थायी भावों को भाव कहते हैं। ___भाव के मुख्य ये तीन भेद हुए- (१) देवादिविषयक रति, (२) केवल उद्बुद्धमात्र स्थायी भाव और (३) प्रधानतया ध्वनित होनेवाले संचारी भाव' । यद्यपि रसध्वनि और भावध्वनि दोनों असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य ही हैं, तथापि इसमें भेद यह है कि रसध्वनि में रस का श्रास्वादन तब होता है जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से परिपुष्ट स्थायी भाव उद्रे कातिशय को पहुँच जाता है और जब अपने अनुभावों से व्यक्त होनेवाले संचारी के उद्रक से आस्वाद उत्पन्न । होता है तब भावध्वनि होती है। '१सञ्चारणः प्रधानानि देवादिविषया रतिः। उदबुद्धमात्रः स्थायी च भाव इत्याभिधीयते || साहित्यदर्पण रतिवादिविषया व्यभिचारी तथाजितः। मावः प्रोक्तस्तदाभासा छनौचित्यप्रवतितः । काव्यप्रकाश