पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३२६

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तीसरी छाया लक्षणामूलक ( अविवक्षितवाच्य ) ध्वनि जिसके मूल में लक्षणा हो उसे लक्षणामूलक ध्वनि कहते हैं। लक्षणा के जैसे मुख्य दो भेद-उपादान लक्षणा और लक्षण-लक्षणा-होते है वैसे ही इसके भी उक्त (१) अर्थान्तरसक्रमितवाच्य ध्वनि और ( २) अत्यन्त तिरस्कृतवाच्य ध्वनि नामक दो भेद होते हैं। पहली के मूल में उपादानलक्षणा रहती है। ये पदगत और वाक्यगत के भेद से चार प्रकार को हो जाती हैं। ____ लक्षणामूलक को अविवक्षितवाच्य ध्वनि कहा गया है ; क्योकि उसमें वाच्यार्थ को विवक्षा नहीं रहती। इसी से इसमें वाच्यार्थं से वक्ता के कहने का तात्पर्य नहीं जाना जाता। इससे वाच्याथं का वाधित होना या उसका अनुपयुक्त होना निश्चित है। जैसे-किसीने कहा कि 'वह कुम्भकणं है। यहाँ वाच्यार्थं से केवल यही समझा जायगा कि उसके कान घड़े के समान है या वह त्रेता के राक्षस-राजा रावण का भाई है, किन्तु वह व्यक्ति म तो रावण का भाई ही है और न उसके कान घड़े के समान ही हैं। यहां वाच्यार्थं की बाधा है। वक्ता का अभिप्राय इससे नहीं जाना जा सकता । अतः, यहां प्रयोजनवती गूढव्यंग्या लक्षणा द्वारा यह समझा जाता है कि वह महाविशाल काय, अतिभोजी और अधिक निद्राजु है। इसे पालस्वातिशय ध्वनित होता है । यहां वाच्यार्थं को अविवक्षा है और वह अर्थान्तर में संक्रमित है। १ पदगत अर्थान्तरसंक्रमित अविवक्षितवाच्य ध्वनि जहाँ मुख्यार्थ का बाध होने पर वाचक शब्द का वाच्यार्थ लक्षणा द्वारा अपने दूसरे अर्थ में संक्रमण कर जाय-बदल जाय, वहाँ अर्थान्तर- संक्रमित अविवक्षितवाच्य ध्वनि होती है। पद में होने से इसे पदगत कहते हैं। जैसे, ___ तो क्या अबलायें सदैव ही अबलायें हैं बेचारी !- गुप्त यहाँ द्वितीय बार प्रयुक्त बला' शब्द अपने मुख्यार्थ 'स्त्री' में बाधित होकर अपने इस लाक्षणिक अर्थ को प्रकट करता है कि वे अब आये हैं अर्थात् निर्बल हैं । इससे यह वनित होता है कि उनको सदा पराधोन, आत्मरक्षा में असमर्थ या दया का पात्र ही नहीं होना चाहिये। यहां जो लक्ष्याथं किया जाता है वह वाच्यार्थ का रूपान्तर-मात्र है। उससे सर्वथा भिन्न नहीं। प्रायः पुनरुक्त शब्द प्रथमोक्त शब्द के अर्थ में उत्कर्ष या अपकर्ष का द्योतन करता है।