पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३२७

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काव्यदर्पण
 

२ वाक्यगत अर्थान्तरसंक्रमित अविवक्षितवाच्य ध्वनि जहाँ मुख्यार्थ के बाधित हो जाने के कारण वाच्यार्थ की विवक्षा न होने पर वाक्य अपने दूसरे अर्थ में संक्रमण कर जाय, वहाँ यह ध्वनि होतो है । जैसे, सेना छिन्न, प्रयत्न भिन्न कर पा मुराद मनचाही ___ कैसे पूजू, गुमराही को मैं हूँ एक सिपाही ॥-भा० आत्मा इस पद में 'मै हूँ एक सिपही' वाक्य के मुख्याथ से कवि के कहने का तात्पर्य बिलकुल भिन्न है। इसका व्यग्यार्थ होता है-मैं कष्टसहिष्णु, साहसी, राष्ट्र का उ-नायक, आज्ञापालक, स्वभावतः देशप्रेमी तथा वीर हूँ। इस दशा में गुमराही की पूजा कैसे करूं ? यहाँ वाक्य अपने मुख्यार्थ से बाधित होकर अर्थान्तर ( व्यंग्यार्थ) में संक्रमण कर गया है। इसमे 'मैं इतने ही से काम चल जा सकता था। 'हूँ एक सिपाली' शब्द व्यर्थ है। किन्तु, नहीं। 'मैं हूँ एक सिपाही' वाक्य सिपाही का उक्त सगौरव आत्माभिमान व्यजित करता है।

३ पदगत अत्यन्ततिरस्कृत (अविवक्षित वाच्य) ध्वनि

जहाँ बाधित वाच्यार्थ का अर्थान्तर में संक्रमण नहीं होता, बल्कि मुख्यार्थ का सर्वथा तिरस्कार ही हो जाता है। अर्थात् उसका एक भिन्न ही अर्थ हो जाता है, वहाँ यह ध्वनि होती है। इसके ये उदाहरण है- नीलोत्पल के बीच सजाये मोती से आंसू के बूद। हृदय-सुधानिधि से निकले हो तब न तुम्हें पहचान सके ॥-प्रसाद मौलोत्पल के बीच में मोती के सदृश आँसू सजे है, इस अर्थ में बाध स्पष्ट है । किनु, आंसू के सहारे नीलोत्पलों में अध्यवसित उपमेय नयनो का शीघ्र बोध हो जाता है। नीलोत्पल अपना अर्थ छोड़कर आँख का अर्थ देने से लक्षणलक्षणा है। यहाँ अत्यन्ततिरस्कृत वाच्य से यह ध्वनि निकलती है कि नयन बड़े सुन्दर हैं; दर्शनीय हैं । नीलोत्पल में होने से पदगत है। ४ वाक्यगत अत्यन्त तिरस्कृत ( अविवक्षित वाच्य ) ध्वनि सकल रोओं से हाथ पसार, लूटता इधर लोभ गृह द्वार। यहां वाच्यार्थ सर्वथा वाघित है । रोगों से लोभ का हाथ पसारना और घर- झार लूटना, एकदम असंभव है। लक्ष्यार्थ है, लोभी का समस्त कोमल और कठोर साधनों से परकीय द्रव्य को आत्मसात् करना । इससे प्रयोजनरूप व्यग्य है लोभ या तुष्या का प्रारमतृप्ति के लिए दैन्य-प्रदर्शन या बलात्कार सब कुछ कर सकने की सवा इससे पद्या का अर्थ अत्यन्त तिरष्कृत हो जाता है। यह वाक्यगत है।