पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३३७

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२५६ वनियों का संकर और संवष्टि ४ वक्यात कविनिबद्धपात्रप्रौढोक्तिसिद्ध अलंकार से अलंकार व्यंग्य । नित संसौ हसौ बचत मनहुँसु यहि अनुमान । बिरह अगिनि लग्टन सकत झपटिन मीचु सचान ॥-बिहारी निरन्तर सन्देह बना रहता है कि इस वियोगिनी का हंस अर्थात् जीव कैसे बचा हुआ है ! सो, यही अनुमान होता है कि मृत्युरूपी बाज बिरहाग्नि की लपटों के कारण हंस-जीव पर झपट नहीं सकता। सखी की उक्ति 'विरह अगिनी' और 'मोचु सचान' पात्र-प्रौढोक्ति है और दोनों में रूपक है । न मरने के समर्थन से काव्यलिग भी है। इन दोनों से विशेषोक्ति को ध्वनि है; क्योंकि कारण रहते भी कार्य नहीं होता। दसवीं छाया ध्वनियों का संकर और संसृष्टि जहाँ एक ध्वनि में दूसरी ध्वनि दूध और पानी की तरह मिलकर रहती है, वहाँ ध्वनि-संकर तथा जहाँ एक में दूसरी ध्वनि मिलकर भी तिल और चावल के समान पृथक्-पृथक् परिलक्षित रहती है वहाँ ध्वनि- समष्टि होती है। ध्वनि-संकर के मुख्य तीन भेद होते हैं-(१) संशयास्पद संकर, (२) अनु- ग्राह्यानुग्राहक संकर और ( ३) एकव्यंजकानुप्रवेश संकर । जहाँ अनेक ध्वनियों में किसी एक के निश्चय का न कोई साधक चैन बा एक, वहाँ संशयास्पद संकर होता है। मोर मुकुट की चन्द्रिकन, बों राजत ननद । मेन ससिसेखर को अकस, किय सेखर सत बन्द ॥-बिहारी भक्त को उक्ति होने से देवविषयक रति-भाव को, नायिका के प्रति दूतो की उक्ति होने से शृङ्गार रस को और सखी की उक्ति सखी के प्रति होने से कृष्णा- विषयक रति-भाव की धनि है। अतः, एक प्रकार की यह भी वक्तबोद्धव्य की विलक्षणना से संशयास्पद संकर ध्वनि है । अनुग्राह्यानुप्राहक संकर जहाँ अनेक ध्वनियों में एक ध्वनि दूसरी ध्वनि का समर्थको अर्थाल एक दूसरी का अंग हो, वहाँ उक्त संकर होता है।