पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३४१

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गुणीभूत व्यंग्य २५७ 'अपर' के पेटे आठ रस, भाव आदि असंलक्ष्यक्रम ध्वनि के भेद, दो संलक्ष्यक्रम पनि के भेद और वाच्य अथ, कुल ग्यारह पाते हैं। यहाँ अंग हो जाने का अभिप्राय है गौण हो जाना अथात् अंगी का सहायक होकर रहना, जिससे अंगी परिशुष्ट हो। १ गुप्लीभूत रस रसवत् श्रल कार, २ गुणीभून भाव प्रेयस् अलकार, ३ गुणीभूत रसाभास तथा ४ गुणीभूत भावाभास ऊर्जस्वी अलकार और ५ गुणीभूत भावशाति समाहित अलंकार के नाम से अभिहित होते हैं । ६ भावोदय, ७ भाव- सन्धि और ८ भाव-शबलता अपने-अपने नाम से ही अल कार कहे जाते हैं। जैसे, भावोदय अलंकार, भावसन्धि अलंकार आदि । (क) रस में रस की अपरांगता एक रस जहां किसी दूसरे रस हा अंग हो जाता है वहां वह रस अपरांग गुणीभूत व्यंग्य हो जाता है । रस के अमरांग होने का अभिप्राय उसके स्थायी भाव के अपरांग होने से है ; क्योंकि परिपक्व रस किसी दूसरे का अंग नहीं हो सकता। सपनो है संसार यह रहत न जाने कोय । मिलि पिय मनमानी करी काल कहाँ धौ होय ॥-प्राचीन यहाँ शांतग्स शृङ्गार रस की पुष्टि कर रहा है। अतः, शृङ्गार रस का अंग हो जाने से शांत अपरांग हो गया है। यहाँ एक असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य हो का दूसरा अनलक्ष्यक्रम व्यंग्य अंग है। (ख) भाव में भाव की अपररांगता जहाँ एक भाव दूसरे भाव का अंग हो जाता है वहाँ भाव से भाव की अपरांगत होती है। डिगत पानि डिगुलात गिरि, लखि सब ब्रज बेहाल । कपि किसोरी दरसि के, खरं लजाने लाल -बिहारी यहां कृष्ण के साविक भाव कंप से व्यजित रति-भाव का लज्जा-भाव अंग है। अतः, एक भाव दूसरे का भाव का अंग है। (ग) भाव में भावसन्धि की अपरांगता जहाँ सनान चमत्कार-बोधक दो भावों की संधि किसी भाव का ग होकर रहती है वहं भावसन्धि को अपरांगता होती है । छुट न लाज न लालची प्यो लखि नैहर गेह । सटपटात लोचन खरे भरे सकोच सनेह ॥-बिहारी इसमें प्रिय-मिलन का लालच (औत्सुक्य और चपलता) तथा नहर को लाज दोनों भावों को संधि है, जो नायक-विषयक रतिभाव का अंग है।