पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२५८ काच्यदया (घ) भाव में भाव-शबलता को अपरांगता जहां भाव-शबलता किसी भाव का अंग हो जाती है, वहाँ उसकी अपरांगता होती है। रीझि-रीशि, रहसि-रहसि, हँसि-हँसि उठ साँसै भरि, आंसू भरि कहत दई-दई । चौकि-चौकि, चकि-चकि, उचकि-उचकि 'देव', ____जकि-जकि, बकि-बकि परत बई-बई दुहुन को रूप गुन दोऊ बरनत फिर, ____घर न थिरात रीति नेह की नई-नई मोहि-मोहि मोहन को मन भयो राधिका में राधा मन मोहि-मोहि मोहन मई मई यहाँ भी मोहन के विषय में राधा के और राधा के विषय में मोहन के रति भाव के हर्ष, मोह, विषाद, उत्सुकता आदि पद्योक्त संचारी भाव अंग होकर आये हैं । अतः, यहाँ भाव शबलता को अपरांगता है। ३ वाच्यसिद्ध्यंग व्यंग्य जहाँ अपेक्षित व्यंग्य से वाच्यसिद्धि होती है वहाँ वाच्यसिद्ध्यंग व्यंग्य होता है। वाच्य-सिद्ध्यंग और अपरांग में यही विभिन्नता है कि अपरांग में वाच्य की सिद्धि के लिए व्यंग्य की अपेक्षा नहीं रहती। व्यंग्याथ वाच्यार्थं की थोड़ी-बहुत सहायतामात्र कर देता है; पर वाच्यसिद्ध्यंग में तो व्यंग्याथ के बिना वाच्यार्थ की सिद्धि ही नही हो सकती। पंखड़ियों में ही छिपी रह, कर न बातें व्यर्थ । हूढ़ कोषों में न प्रियतम - नाम का तू अर्थ ॥ हटा घूघट पट न मुख से मत उसककर झाँक । बैठ पत्र में दिवानिशि मोल अपनी आँक ।। कर अभी मत किसी सुन्दर का निवेदन ध्यान; री सजनि वन की कली नादान ॥ -प्रारसी वन की कली के प्रति यह कवि की उक्ति है। इसमें व्यर्थ बाते करना, कोपो मैं प्रियतम का अर्थ हूँढना, मुख से यूँघट हटाना, उझककर झांकना, पर्दे में बैठकर रात-दिन अपना मूल्यांकना आदि ऐसा वर्णन है, जिससे एक मुग्धा नायिका का मान होता है। यदि यह व्यंग्य न मानें तो कली से जो बातें अपर कही गयी हैं उनकी सिद्धि ही नहीं होती। अतः, यहाँ मुग्धा नायिक का व्यंग्य वाच्योपकारक होने से घावषिष्यंग गुणोमन म्यग्य है।